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Wednesday, November 30, 2005

हर तरह से पसंद हैं फिल्में

फिल्में क्यों देखता हूँ? मुझे अच्छा लगता है। हम सभी आक्सीजन, जल और हवा पर जीते हैं पर मन की खुराक कुछ और ही होती है। फिल्में मुझे भाती हैं। जब कभी मन खराब होता है तो यह मुझे गुदगुदाकर हंसा देती है, जब अकेला होता हूँ तो मेरा साथ देती हैं, जब परिवार और मित्र साथ होते हैं तो बढ़िया दोस्त बन जाती है। आजकल तो खैर सिनेमा हॉल जाकर फिल्म देखना मुश्किल होता है तो टीवी या कंप्यूटर ही माध्यम बने हैं सिनेमा दर्शन के। मैंने अक्सर यह सोचा है कि मुझे किस तरह की फिल्में पसंद हैं पर सचाई यही लगती है कि स्थितिजन्य कारणों से कोई फिल्म पसंद आती है और कोई नहीं, कई बार उद्देश्यपूर्ण सिनेमा पसंद आ जाता है तो कई बार बेसिरपैर का धमाल भा जाता है। शायद इसीलिये सलाम नमस्ते पसंद आई पर जेम्स नहीं, सत्या अच्छी लगी पर सेहर नहीं।

फिल्मों के अलावा मुझे फिल्म निर्माण की तकनीक में भी खासी रुचि रहती है, शायद यह बहुत लोगों को पसंद होता है शायद इसीलिये "बिहाईंड द सीन्स" कार्यक्रमों की भरमार है छोटे पर्दे पर। पहले जैकी चैन की फिल्मों के "एंड क्रेडिट्स" के पहले "गूफ अप्स" और खतरनाक शॉट्स के नज़ारों का इंतज़ार रहता था आजकल तो तकरीबन हर फिल्म में यह करने का रिवाज़ हो गया है। बहुत पहले मुम्बई दूरदर्शन से एक कार्यक्रम आता था, "बातें फिल्मों की" जिसे बेंजामिन गिलानी प्रस्तुत करते थे, यह फिल्म निर्माण विधा पर बड़ा अच्छा कार्यक्रम था, तब मैं छोटा था पर मुझे यही लगता था की मैं बड़ा होकर फिल्म निर्माण ज़रूर करूंगा, बाबा ने एक मिनी प्रोजेक्टर भी ला दिया था, फिल्मों के टुकड़ों को माँ की साड़ी तब तक दिखाना जब तक की ब्लब वाला टीन का डिब्बा इतना गर्म न हो जाय जब तक की जलने की बू आने लगे। गणेशोत्सव के समय मुहल्ले के सबसे बड़े मैदान पर फिल्म दिखाई जाती तो बड़ा मज़ा आता, चादर बिछा कर प्रोजे्क्टर के सबसे नज़दीक बैठने की होड़ होती, उससे निकलते प्रकाश के रेले में तैरते कणों पर ही नज़र टिकी रहती, और जब गर्मी कई बार रील पिघलकर टूट जाती तो ऐसा लगता की परदे पर किसी ने मर्तबान भर शहद फेंक दिया हो, तब अपना मिनी प्रोजेक्टर याद आ जाता।

फिल्मों में जो चीज़ भाती है वह संगीत भी है। फिल्मी संगीत तो खैर भारतियों की रुह में बसती है। आजकल संगीत फिल्म के काफी पहले जारी हो जाता है, फिर चैनलों पर लगातार बजते बजते हिट भी घोषित हो जाता है। बावजूद इसके मुझे लगता है कि कर्णप्रिय संगीत अक्सर सुनने को मिल जाता है, हीमेश रेशमिया, प्रीतम जैसे नये लोग नये संगीत के साथ मकबूल हो रहे हैं। आजकल की फिल्मों में हॉलीवुड की नकल की बजाय उसकी तर्ज पर चलने का माहौल गर्माया है, "एक अजनबी" जैसी फिल्मों के साथ हॉलिवुड के कथित निर्देशक भी मैदान में हैं। इससे अब्बास मस्तान, विक्रम भट्ट और संजय गुप्ता जैसे निर्देशकों को, जो या हॉलिवुड की फिल्मों से सीधे "इंस्पायर" हो जाते रहे हैं को सबक मिलेगा। हमें हॉलीवुड जैसी प्रोफेशनलिज़्म और प्रबंधन तथा तकनीकी कौशल को अपनाने की ज्यादा ज़रूरत है बनिस्बत की इनकी पटकथाओं का अनुसरण करने की। फिल्में जल्दी बनें, पेशेवराना रूप से बने, तो लागत भी घटे।

फिल्में मुझे हर रूप में पसंद आती हैं, चाहे फंतासी हो या यथार्थ के नज़दीक। आजकल की फिल्मों में खास यह बात अच्छी लगती है कि तकनीक बढ़िया हुई है और अदाकारी से भी हैम और मेलोड्रामा का अंश लगभग खत्म हो गया है। सुना है की भारतीय कंपनियाँ एनीमेशन और स्पेशल अफेक्ट्स में हॉलिवुड से काम पा रही हैं। मुझे इंतज़ार उस दिन का रहेगा जब हम जूरासिक पार्क जैसी कोई करिश्माई फिल्म मूल पटकथा और अपने माद्दे पर बनायेंगे, जिसे आस्कर में किसी से होड़ नहीं करनी होगी।

Thursday, October 27, 2005

आवरण ~ चिट्ठों के ब्लॉगर टेम्प्लेट

काफी दिनों से ये विचार मन में मचल रहा था। वर्डप्रेस के रेड ट्रेन जैसे कुछ ब्लॉग थीम पहली ही नजर में मन को भा गये थे पर अपने ब्लॉगर के ब्लॉग पर उसे लाने की बात पर मन मसोस कर रह जाता था। अब थोड़ा खाली समय मिला तो सोचा क्यों न खुशियाँ बाँटी जाय। बस इसी से जन्म हुआ आवरण का। आवरण के माध्यम से पहले पहल मैं वर्डप्रेस के दो लोकप्रिय थीम ब्लॉगर के लिये टेम्पलेट की शक्ल में पेश करने वाला हूँ। शायद यह पहली बार होगा कि हिन्दी चिट्ठाकारों के लिये "तैयार" टेम्पलेट उपलब्ध कराये जा रहे हों। इस कार्य पर आपकी प्रतिक्रिया के अलावा मैं चाहुँगा आपके योगदान की भी। यदि आप को कोई थीम बेहद पसंद है और आप उसे ब्लॉगर के लिये चाहते हैं तो बेहिचक बतायें, संभव हुआ तो हम प्रयास ज़रूर करेंगे उसे रूपान्तरित करने का। और यदि आप नये टेम्प्लेट बनाने को उत्सुक हैं तो आईये, मंच तैयार हैं।

Tuesday, October 04, 2005

खेलों देशभक्ति का विकेंद्रीकरण

ज़रा इस सवाल का जल्दी से बिना ज़्यादा सोचे जवाब दें। भारत का राष्ट्रीय खेल कौन सा है?

अगर आप सोच में पड़ गये या फिर आपका जवाब क्रिकेट, टेनिस जैसा कुछ था तो जनाब मेरी चिंता वाजिब है। हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी है। पर पिछले कई दशकों में खेलों की हवा का रुख कुछ यों हुआ है कि हम मुरीद बने बैठे हैं एक औपनिवेशिक खेल के। और इस खेल में भी चैपल-गांगुली की हालिया हाथापाई दे तो यही पता चलता है कि खेलों पर आयोजक, चैलन, चयनकर्ता और राजनीति इस कदर हावी हो गई है कि अब खिलाड़ी और कोच भी अपने हुनर नहीं राजनीतिक दाँवपेंचों के इस्तेमाल में ज्यादा रुचि दिखाते हैं।

हम बरसों से सुनते देखते आये हैं राष्ट्रीय और आलम्पिक्स जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में चयन के सियासी खेल की, कहानी जो हर बार बेहयाई से दोहराई जाती है। हमारे स्क्वॉड में जितने खिलाड़ी नहीं होते उनसे ज़्यादा अधिकारी होते हैं। हॉकी जैसे खेल, जिनमें हम परंपरागत रूप से बलशाली रहे, में हम आज फिसड्डी हैं और निशानेबाजी जैसे नए खेलों पर अब हमें आस लगानी पड़ रही है। 100 करोड़ की जनसंख्या वाला हमारा राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में एक स्वर्ण पदक के लिये तरसता है।

हम यह भी सुनते रहते हैं कि भारतीय ट्रैक एंड फील्ड आयोजनों में स्टैमिना के मामले में युरोपिय देशों का सामना नहीं कर सकते, या फिर कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने जानबूझ कर हॉकी जैसे खेलों के नियमों में इस कदर बदलाव किये हैं कि सारा खेल ड्रिबलिंग जैसे एशियाई कौशल की बजाय दमखम का खेल बन गया। मुझे यह समझ नहीं आता कि कब तक हम ये बहाने बनायेंगे। चीन भी तो एशियाई देश है और हॉकी पाकिस्तान भी खेल रहा है। अंतर्राष्ट्रीय खेलों को छोड़ें, हमारे अपने घरेलू स्तर पर कितने बड़े आयोजन होते हैं? क्या स्कूलों में क्रिकेट के अलावा किसी और खेल पर जोर दिया जाता है?

जाने आपने यह टाईम्स में प्रकाशित गेल आम्वेट का यह हालिया लेख पढ़ा की नहीं! उन्होंने अमरीका से तुलना करते हुये बहुत ही अच्छा विश्लेषण पेश किया है। मुझे उनका यह विचार बड़ा रोचक लगा कि, "छोटी या स्थानीय देशभक्ति से खेलों का प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण हो सकेगा और इससे खेलों की राष्ट्रीय देशभक्ति फलेगी फूलेगी ही"। गेल का कहना यही है कि खेल की देशभक्ति भारत में केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजनों के लिये ही सामने आती है जबकि अमेरिका में ऐसा नहीं हैं।
तकरीबन कोई भी ध्यान नहीं देता अगर अमेरीका किसी अन्य देश के साथ खेल रहा हो जब तक की मामला आलम्पिक्स का न हो। अमेरिका में बड़े खेल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बल्कि महानगरीय या राज्य विश्वविद्यालय स्तर पर होते हैं...वहाँ छोटे शहरों, स्कूलों के स्तर पर देशभक्ति है। हर हाईस्कूल का अपना चिन्ह है, गीत है, विरोधी हैं। अमेरिका का ध्यान केवल फुटबॉल, बास्केटबॉल, बेसबॉल जैसे बड़े खेल ही नहीं खींचते। बच्चे हर स्पर्धा में भाग लेते हैं, बैडमिन्टन, टेबल टेनिस, बॉली बॉल, आइस हॉकी, जो भी खेल हो।

निःसंदेह दिक्कतें और भी हैं। कब्बडी, खोखो, मलखम्ब जैसे घरेलू खेलों के खिलाड़ियों का न तो नाम हमारे राष्ट्रीय अखबारों में आता है न ही कोई उन पर पैसा लगाने को तैयार होता है। पैसों की बात तो अहम है, खास तौर पर जब खेल टेनिस जैसा ग्लैमर वाला न हो। कई दफा यह लगता है कि खेलों का बजट आखिर रक्षा या विज्ञान जितना क्यों नहीं होना चाहिये? गेल का इस विषय पर विचार अलग है। उनका कहना है कि सरकारी पैसे पर निर्भरता हो ही क्यों? अमरीका के विश्वविद्यालय खेलों के मर्केन्डाईज़ और टिकटों से कमा लेते हैं, खेलों से कमाई होती है तो इनके भरोसे गरीब परिवारों के बच्चे खेल वज़िफों पर विश्वविद्यालय में पढ़ लेते हैं। निजी फंडिंग से ही स्टेडियमों और खेल का साजो सामान का जुगाड़ होता है।

सानिया मैनिया के दौर में क्या कोई इस बात को सुनेगा?

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Monday, October 03, 2005

लताजी को नहीं पता जी?

व्यक्तिपूजन हमारे यहाँ की खासियत है। मकबूलियत मिल जाने भर की देर है चमचों की कतार लग जाती है। मैंने एक दफा लिखा था राजनीति में अंगद के पाँव की तरह जमें डाईनॉसारी नेताओं की, दीगर बात है कि आडवानी ने बाद में दिसंबर तक तख्त खाली करने की "घोषणा" की। पर समाज के अन्य जगहों पर यह व्यक्तिपूजन चलता रहता है। हाल ही में प्रख्यात पार्श्व गायिका लता मंगेशकर का ७६वां जन्मदिवस था। टी.वी. पर अनिवार्यतः संदेसे दे रहे थे दिग्गज लोग। लता ग्रेट हैं। बिल्कुल सहमत हूँ। एक नये संगीत निर्देशक, जिनका संगीत आजकल हर चार्ट पर "रॉक" कर रहा है और जिन्हें अचानक पार्श्वगायन का भी शौक लगा है, ने कहा वे आज भी इंतज़ार कर रहे हैं कि कब लता दीदी उनकी किसी फिल्म में गा कर उन पर एहसां करेंगी। माना कि भैये वक्त रहते तुम गवा नहीं पाये उनसे, जब वे गाती थीं तब तुम नैप्पी में होते थे, पर कम से कम उनके गाने के नाम पर श्रोताओं को गिनी पिग मान कर प्रयोग तो ना करो यार! जिनकी आवाज़ अब जोहरा सहगल पर भी फिट न बैठे उसे तुम जबरन षोडशी नायिकाओं पर फिल्माओगे? हद है!

जावेद अख़्तर ने सही कहा, लता जैसी न हुई न होगी। बिल्कुल सहमत हूँ। मुझे बुरा न लगेगा अगर आप उन्हें नोबल सम्मान दे दो, उनकी मूर्ति बना दो, मंदिर बना दो, १५१ एपिसोड का सीरियल बना दो चलो, पर सच तो स्वीकारो। मानव शरीर तो एक बायोलॉजीकल मशीन ठहरी, जब हर चीज़ की एकसपाईरी होती है तो क्या वोकल कॉर्ड्स की न होगी? मुझे लता जी के पुराने गीत बेहद पसंद है, उनके गाये बंगला गीत भी अद्वितीय है, पर "वीर ज़ारा" में उन को सुन कर लगा कि मदन मोहन भी अपनी कब्र में कराहते होंगे। बहुत राज किया है इन्होंने, लता आशा के साम्राज्य में सर उठाने को आमादा अनुराधा पौडवाल को गुलशन कुमार जैसे लोगों का दामन थामना पड़ा, और जब तक आवाज़ का लोहा माना तब तक बेटी गाने लायक उम्र में पहुँच गई। आज भी टेलेंट शो न जाने कितने ही माहिर लोगों को सामने लाते हैं पर सब "वन नंबर वंडर" बन कर गायब हो जाते हैं। श्रेया घोषाल जैसे इक्का दुक्का ही नाम पा सके।

मेरे विचार से यह ज़रूरी है कि निर्माता और संगीत निर्देशक इस बात को समझे और लता स्तुति छोड़ें, हर चीज़ का वक्त होता है, लता आशा अपने अच्छे वक्त को बहुत अच्छे से बिता चुकी हैं, वानप्रस्थ का समय है, उन्हें इस का ज्ञान नहीं हुआ पर आप तो होशमंद रहें।

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Sunday, October 02, 2005

याहू की ब्लॉग सर्च?

खबर तो लीक पहले भी हुई थी पर गूगल भैया ब्लॉग खोज का यंत्र पहले ले आये बाजार में। सुनते हैं कि अब याहू कमर कस चुका है अपने ब्लॉग खोज तंत्रांश को मैदान में उतारने के लिये। ब्लॉगिंग के तो दिन फिर गये लगते हैं!

गूगल चींटी

गूगल अब एक प्रजाति का भी नाम है। खबर है कि चींटीयों की एक नई प्रजाति का नाम "प्रोसिरेटियम गूगल" रखा गया है। चींटियाँ खोजी प्रवृत्ति की तो होती ही हैं पर यह नाम गूगल अर्थ के द्वारा दी गई मदद के एवज में है। देखा? कोई भी काम छोटा नहीँ होता!

कौड़ियों से करोड़ों?

जो यह हजरत कह रहे है कुछ कुछ वैसा ही ख्याल मेरा भी है। पर पहले बात इस पेंटिंग, जिसका नाम यकीनन कुछ भी हो सकता था, "महिशासुर" की, यह तैयब मेहता साहब की पेंटिंग है। आपने सुना ही होगा कि यह तिकड़म १ नहीं २ नहीं ३ नहीं पूरे ७ करोड़ रुपये में किसी हज़रत ने खरीदी है। हम यह बहस नहीं करे तो अच्छा कि यह पैसा पसीने की कमाई है या नहीं या फिर खरीददार की मानसिक हालत कैसी है। अब सुनिये कथित जानकार लोग क्या कहते हैं इसके बारे में:
  • तैयब ने मॉडर्न आर्ट की नई भाषा रची है। उनका रंगों का "सीधा और तीक्ष्ण" प्रयोग उनके युग के चित्रकारों के हिसाब से अनूठा है।
  • तैयब का तरीका नायाब है, तिस पर महिशासुर का विषय जीवन और आशा की भावना जगाता है।
मुझे आर्ट वार्ट का ज्ञान नहीं पर माँ कसम थोड़ी बहुत चित्रकारी तो हमने भी की है। ये क्या बकवास कर रहे हैं यह लोग? बड़बोली के लिये माफ कीजीयेगा पर इससे बेहतर चित्रकारी तो शायद मेरा तीन साल का बेटा कर ले, पर मुझे खुशी है कि वह अभी तैयब के "स्तर" तक नहीं पहूँचा। हम अपने बेटे जो "जूजू बूड़ी" यानि जादुगरनी बुढ़िया के नाम से अक्सर डराते हैं, खासतौर पर जब अनुशासन से काम कराना हो, मुझे यह चित्र अगर दस बीस रुपये में मिल जाती तो शायद हम इस पेंटिंग का ही नाम ही "जूजू बूड़ी" रख देते।

गौरतलब है कि तैयब कि पिछली एक पेंटिंग जो "काली" देवी पर बनी थी १ करोड़ में बिकी थी। मुझे नहीं मालूम कि ये बनाने और खरीदने वाले पागल है या नहीं पर जो बात साफ साफ समझ आती है वह यह कि पैसे का यह लेनदेन कोई सीधी सच्ची कहानी तो नहीं है। खरीदने की "एन.आर.आई शक्ति" सारे रिकार्ड तोड़ रही है, लोग अपना कलेक्शन बना कर शेखी बघारने के लिये कूछ भी कीमत दे रहे हैं कचरा कला के लिये। बिलाशक कंटेम्पररी आर्ट पर खामखां का हाईप बना रखा है मीडिया ने। ग्रामीण हस्तकला कलाकारों की कला की नकल करने वाले लोगों के वारे न्यारे हैं और असली कलाकार दो जून की रोटी के लिये तरस रहे हैं।

खैर, जब तक अंधेरा कायम है रोटी सेंकतें रहेंगे तैयब और उनकी बेशर्म जमात।

[उत्तरकथाः बड़ा अजब संयोग है, मैंने यह चिट्ठा १ अक्टूबर को लिखा पर प्रेषित नहीं कर पाया, आज देखता हूँ कि तैयब की यह कृति टाईम्स और एक्सप्रेस में भी चर्चा का सबब बनी है। लगता है मेरे विचार संप्रेषित भी हो रहे हैं ;) बहरहाल इससे मुझे जो बात पता चली वह यह है कि इन चित्रों के इतने हाईप्ड कीमत पर बिकने पर भी इनके बनाने वालों को कोई रॉयल्टी नहीं मिलती। अब शायद इस लेख का आखिरी वक्तव्य मुझे वापस ले लेना चाहिये!]

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Friday, September 30, 2005

नया ब्लॉग वर्गीकरण

क्षेत्रियता और विषय के आधार पर ब्लॉगों के वर्गीकरण तो होते रहते हैं, पहली बार देखा धर्म के नाम पर वर्गीकरण। गॉडब्लॉगकॉन क्रिस्तान ब्लॉगरों का पहला सम्मेलन है जो कथित रूप से इस समुदाय के ब्लॉगरों को एकजुट करेगा। एकजुट ही करना भाया, पृथकता से डर लगता है!

नासा और गूगल

खबर है कि नासा और गूगल अब मिल कर काम करेंगे, दोनों एक विशाल शोध केंद्र बनाने जा रहे हैं। क्या हमारे लालफीताशाह मुल्क में हम इसरो से यह उम्मीद कर सकते थे कभी?

Tuesday, September 27, 2005

पब्लिक सब जानती है

क्या गांगुली की कप्तानी २००५ के अंत तक टिकेगी? क्या राहुल गांधी २०१० में भारत के प्रधानमंत्री होंगे? ऐसे सवालों के जवाबों की उम्मीद तो अब तक तो हम बेजॉन दारूवाला जैसे लोगों से ही करते थे पर अब ये कयास वैज्ञानिक प्रयासों से काफी सच भी साबित हो सकते हैं। मेरे पसंदीदा चिट्ठाकारों में शामिल नितिन पई और श्रीजीत ने प्रेडिक्शन मार्केट के आर्थिक सिद्धांत पर एक नया प्रयोग किया है, पब्लिक ज्ञान के रूप में। प्रेडिक्शन मार्केट का सिद्धांत कहता है कि अगर ढेर सारे लोगों की व्यक्तिगत राय को सम्मिश्रित कर दिया जाय तो नतीजे वास्तविक नतीजों के काफी करीब होते हैं, जिसका ज़िक्र जेम्स सोरोविकी की कामयाब पुस्तक विस्डम आफ क्राउड में भी है।

पब्लिक ज्ञान में आप अनुमान शेयर बाजार की तईं लगाते हैं फर्क बस इतना है कि खर्च कुछ नहीं करना पड़ता, सारा कारोबार रूपये या डॉलर में नहीं "मूलर" में होता है। मंच पर फिलहाल प्रवेश के लिये निमंत्रण की दरकार होगी। नितिन के इस अभिनव प्रयास के लिये ढेरों शुभकामनायें! स्मार्ट मॉब्स क्या कर सकती हैं यह इसका बेहतरीन उदाहरण बन कर उभरेगा।

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आज तन्मय का जन्मदिन

आज यानि २८ सितंबर २००५ को मेरे पुत्र तन्मय का जन्मदिन है जो अब तीन वर्ष के हो चुके हैं। बेटा तो अभी हैं दादा दादी के पास तो मुझे भी मन मसोस कर फोन पर ही बधाई देनी पड़ेगी।

बूबू हम सभी की ओर से तुम्हें हैप्पी बर्थडे और दीर्घ, सुखी और स्वस्थ जीवन के लिये आशीर्वाद और प्यार। तुम जीयो हज़ारों साल, साल के दिन हो पचास हज़ार!

Monday, September 26, 2005

बोले तो...

  • सिक्स अपार्ट २००६ में छोड़ने जा रहा है नया शगूफा, प्रोजेक्ट कॉमेट, जो कहते हैं कि लाईव जर्नल, टाईप पैड और मूवेबल टाईप का सम्मिश्रण है। अब यह कॉमेट कैसा होगा यह तो वो ही जाने पर म्हारे को तो जै याहू ३६० डिग्रीज़ जैसी ही बात लगे है।
  • फीड के दीवानों के लिये एक और नया आनलाईन फीडरीडर है फिंडोरीब्लॉगलाईंस का सफाया करने को उतारु यह हजरत न केवल कोई भी OPML सूची बल्कि ब्लॉगलाईंस के सब्सक्रिप्शन्स को भी इम्पोर्ट करने का माद्दा रखते हैं। कहा जा रहा कि यह बहुत "तेज़" है, यह बात है तो आज़मा कर देखना पड़ेगा!
  • नाम कमाना है तो जर्मनी के देशवैले द्वारा आयोजित ब्लॉग अवार्ड में शुमार हों। बताना तो वैबी अवार्ड के बारे में भी चाहता हूँ पर यहाँ तो कुछ जीतने के लिये दमड़ी लगेगी। दूर से प्रणाम!
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Sunday, September 11, 2005

अब तो छोड़ो मोह!

हाल ही में हास्य कवि प्रदीप चौबे के दो‍ लाईना पर पुनः नज़र पड़ीः
काहे के बड़े हैं,
अगर दही में पड़े हैं।

सत्ता को लालायित भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के बारे में यह काफी सटीक वचन हैं। सत्ता से विछोह के बाद से उपरी तौर पर सुगठित दिखने वाले संगठन की अंदरूनी दरारें तो खैर काफी दिनों से नज़र आ ही रही थीं। सुषमा स्वराज, प्रमोद महाजन, उमा भारती जैसे अनेकों टकटकी लगाये बैठे रहे हैं की पार्टी में उनका कुछ दबदबा कायम हो। राजनीति के पानी की सचाई यही है कि जो नेता मुखरित रूप से सतह पर नज़र आते हैं उनका वज़न वैज्ञानिक नियमों के तहत हल्का ही होता है। जिन्ना की तारीफ में कसीदे पढ़ने के बाद से ही आडवाणी का सिंहासन डोल उठा था, खुराना जैसे लोग इस फ़िराक में थे कि इसी तेज़ कैटरियानी बयार की ओट में अपना उल्लू सीधा हो जाय तो अच्छा। खुराना और उमा जैसे नेताओं का पार्टी में आधार ठीकठाक है पर समय समय पर पार्टी इनसे कर्त्तव्य पालन के नाम पर बलिदान भी मांगती रही है, उमा को मध्यप्रदेश का ताज़ सौंपना पड़ा गौर को तो खुराना भी हाशिये पर आने को मजबूर हुए। कल वाजपेयी और आडवाणी के मनमुटाव का फायदा ले कर बचने की सोच रहे खुराना के राजनैतिक करियर की ताबूत में आखिरकार अंतिम कील जड़ ही दी गई, हालांकि काँग्रेस शायद जल्द ही प्राणवायु पुनः फूंकने का प्रयास करे। खुराना के खुर कतरने के पीछे पार्टी का साफ संकेत यहः की पंगा ना लै मेरे नाल।

वाजपेयी के हालिया राजनैतिक चुप्पी से उपजते मोहभंग के शब्द से मेरा यह विचार बना था कि चलो शायद भाजपा इस बारे में राजनैतिक अपवाद बने और शीर्ष नेता ससम्मान पदत्याग कर नये लोगों को, खास तौर पर पुराने मोहरों को, आगे आने का मौका दें। पार्टी की सेहत की ज़मीन के लिये भी यह गुड़ाई अच्छी होती, नीचे की उपजाउ ज़मीन उपर आती और खरपतवार भी साफ होते। पर परिणाम में फिर वही ढाक के तीन पात! फिर वही पॉवर स्ट्रगल, वही पुरानी लड़ाई वर्चस्व की। अरे भैये, ८५-९० पार कर लिये आपने, जाने कब बुलावा आ जाय, जितनी इज़्जत और पैसा बनाना था सो तो बना ही लिया होगा, अब तो छोड़ो मोह। पद पर रह कर भी क्या रहे हो? क्या अगले चुनाव की ज़मीनी तैयारी है? क्या सहयोगी दल से अभी भी यारी है? इन दलों की छोड़ो, क्या संघ और शिव सेना अब भी मन के मीत हैं? क्या संगठन की मजबूती भीत है? हर रोज़ तो आप लोग बयान बदलते हो, दोनों शीर्ष नेताओं में ही नहीं पट रही। फिर काहे के बड़े हो? सचाई का सामना करो, उम्र का लिहाज़ करो, सचमुच बड़ा बने रहना है तो बड़ा निर्णय तो लेना ही होगा।

Thursday, September 08, 2005

मंगल पर दंगल

मंगल पांडेकहने को तो हम एक मुक्त समाज हैं, जहाँ हमें बोलने की मुकम्मल आज़ादी है पर यही आज़ादी बहस के नाम पर रोक टोक लगाने के भी काम आ जाती है। फिल्में तो ऐसे मामलों में ज्यादा प्रकाश में आती हैं। कभी आपत्ति फिल्म के टाईटल पर तो कभी एतराज़ कथानक या किरदार पर। आमिर खान की मंगल पांडे को पहले तो खराब प्रेस ज़्यादा मिली फिर फिल्म पिट भी गई। अव्वल तो ऐतिहासिक और पौराणिक पटकथाओं के कद्रदान ही कम होते हैं, तिस पर आज के ज़माने में चीज़ रीमिक्स न की हो तो जंचती नहीं। बहरहाल, आमिर मेहनती अभिनेता हैं, फिल्म के लिये स्वयं को "झोंक" देते हैं (वैसे जिस तरह से वह स्वयं को थोपते हैं, उस लिहाज़ से इस वाक्य में निर्देशक "जोंक देते हैं" जुमले का भी प्रयोग सही मानते), अपने होमवर्क और रीसर्च का गुणगान करते वे थकते नहीं थे। इस बीच बी.बी.सी के एक कर्मी मधुकर उपाध्याय ने १८६० में ब्रितानी सेना के एक सूबेदार सीता राम पाण्डेय की आत्मकथा का अवधी रूपांतर जारी किया है। कहना न होगा कि मौका भी था और दस्तूर भी। अब उपाध्याय का कहना है कि केतन मेहता और आमिर का फिल्म के कथानक की ऐतिहासिक सचाई का दावा बकवास है। कहा कि उन्होंने कोई शोध नहीँ किया, यहाँ तक कि दिल्ली स्थित राष्ट्रीय पुरालेखागार में तक नहीं गये जहाँ मंगल पांडे के कोर्ट मार्शल आर्डर की मूल प्रति संचित है। यानी कुल जमा यह लांक्षन लगा दिया कि फिल्म ऐतिहासिक रूप से सटीक नहीं हैं।

किसी ऐतिहासिक या पौराणिक घटनाक्रम के नाट्य रूपांतरण में वाकई यह बड़ी दिक्कत है। निर्माता पर वाहवाही व ईनामात बटोरने और बॉक्स आफिस, सब का दबाव रहता है। ओथेंटिसिटी व ऍक्यूरेसी का दावा करना पड़ता है और आलोचक तुरंत जुट जाते हैं दावों में दोष निकालने पर। वैसे न मैंने यह फिल्म देखी है और न ही १८५७ के संग्राम की मेरी जानकारी स्कूली ज्ञान से ज्यादा है, पर मेरा विचार है कि निर्माताओं को अब परिपक्व हो कर ऐतिहासिक और पौराणिक घटनाओं में "फिक्शन" या काल्पनिक घटानक्रम का समावेश करने पर उसे स्वीकारने का साहस करना होगा। क्रियेटिव फ्रीडम के आधार पर मुझे यह स्वीकार्य होगा की ऐसी फिल्म बनें जिस में पटकथाकार यह कल्पना करे कि महात्मा गांधी आज जीवित होते तो क्या होता, या फिर कि महाभारत में अर्जुन किसी हालत में भी शस्त्र नहीँ उठाते तो कथानक की दिशा क्या होती। दिक्कत यही है कि निर्माता स्वयं भी परिभाषित नहीं करना चाहते असलियत और कल्पना के दायरे को। जहाँ पौराणिक घटनाओं से अक्सर धार्मिक संवेदनाएँ जुड़ी रहती हैं, तो ऐतिहासिक किरदारों के साथ समुदायों की प्रतिष्ठा और विश्वास का सवाल पैदा हो जाता है। हाँ, ऐतिहासिक घटनाओं के फिल्मीकरण में रिस्क अपेक्षाकृत कम होता है।

कलयुगमेरे पसंदीदा निर्देशकों में से एक श्याम बेनेगल की एक फिल्म "कलयुग" में उन्होंने महाभारत को समकालीन सन्दर्भ में बयां किया था, एक फिक्शनल कथा का जामा पहनाकर। पूरी फिल्म में कहीं भी महाकाव्य का हवाला नहीँ दिया, निर्णय दर्शकों पर छोड़ दिया; पात्रों का पौराणिक टेम्पलेट पर चित्रण किया पर हूबहू फॉलो नहीं किया। यह दीगर बात है कि फिल्म उतनी चली नहीं, शायद सन्दर्भ दर्शकों के पल्ले नहीं पड़ा। और शायद इसी बात से फिल्म निर्माता डरते भी हैं। संदेश अगर परोक्ष रूप से, प्रतीकात्मक रूप से दिये जाय, कथानक अगर क्लिष्ट हो तो, फिल्म क्लासेस की बजाय प्रज्ञावान मॉसेस तक सिमट कर रह जाती है। मंगल पांडे फिल्म की कहानी १८५७ के स्वातंत्र्य संग्राम की पृष्ठभूमि में पांडे जैसे सैनिकों के क्रोध से समाज के भीतर बर्तानी हुकुमत और नीतियों के खिलाफ बढ़ते रोष का चित्रण संभव था, पर शायद यह फिर मॉसेस कि फिल्म न रहती, यह किसी कला फिल्म या एब्सट्रैक्ट चित्र जैसा हो जाता, जो चाहे सो मतलब निकाल ले। दूजा सच यह कि आज के ज़माने में हमें हर कथा में सुपरमैन नुमा किरदार चाहिये ही, यह सुपरमैन "डी" के पढ़े लिखे अंडरवर्ल्ड सरगना या "बंटी और बबली" के बंटी हो सकते हैं जो थ्रिल के लिये जुर्म करते है या फिर "सेहेर" का आदर्शवादी एसीपी जो कर्तव्य के लिये जान दे देता है, या फिर डबल्यू.डबल्यू.एफ हूंकार भरता बलवाकारी मंगल। तीजा ये कि, भैया टाईमिंग तो सही रखो, जब "भगत सिंह" टाईप फिल्मों का बाजार गरम था तब आपने ये बनानी शुरु की और फिर तीन चार साल तक बनाते ही रहे और यहाँ ज़माना वाया शाहिद‍ करीना एम.एम.एस "नो एंट्री" तक आ पहुंचा, अब आप परोस रहे हो। हैं भई!

वैसे निर्माताओं से ज्यादा दर्शकों पर निर्भर होता है कि दिशा क्या होगी। यहाँ "इकबाल" भी बनती है और "क्या कूल है हम" भी। तो उम्मीद यही की जाय कि प्रयोगधर्मी फिल्मकार ऐतिहासिक और पौराणिक विषयों को तौल कर लें, पर लें ज़रूर। सच्ची बनाओ या कोरी काल्पनिक, पर बनाओ दिल से। फिर नतीज़ा भले ही डेविड सेल्टज़र लिखित "ओमेन" जैसा बाईबल का सरलीकृत बयान हो या फिर अशोक बैंकर के "रामायण" की तरह यप्पी और टेक्नो, पसंद ज़रूर की जायेगी। आखिरकार बाज़ार में पिज़्ज़ा और नान दोनों की खपत होती है।

Sunday, September 04, 2005

अब अबला कहाँ?

फिल्म माई वाईफ्स मर्डर में अनिल कपूर के निभाये पात्र के हाथों अपनी पत्नी का कत्ल हो जाता है। यह फिल्म वैसे किसी चर्चा के लायक नहीं हैं, पर स्टार के ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो में व्यंग्य किया गया कि जहाँ महिलायें कथानक में गुस्सेल पति के बड़ी आसानी से छूट जाने पर खफा हैं तो पतियों को "एक्सीडेंट" के आईडिया मिल रहे हैं। कथानकों में आम तौर पर पति का निर्दोष पक्ष यदा कदा ही दिखता है। यह एक विचित्र सत्य भी है कि हमारे लतीफों में नारी बेलनधारी खलनायिका तो साहित्य में पीड़ित नायिका के रूप में चित्रित होती रही हैं। इन दोनों पक्षों में पुरुष का चित्रण दयनीय ही रहता है। अब मुझे नारी विरोधी या मेल शॉवीनिज़्म के आरोपों से अलंकृत न किया जाय तो मैं यह कहुँगा कि कम से कम आज के युग में छुइमुइ, निरीह और भारतीय संस्कारों के बुरके में कैद नारी की छवि अपने मन में चित्रित करना मुश्किल ही होता जा रहा है। ज़माना बदल गया है और स्त्री हर पल यह जता भी रही हैं। सिनेमा और टीवी के पर्दों पर कंधा न सही अन्य सारे अंग पुरुषों के साथ मिला कर आगे बढ़ रही हैं। मुम्बई व पुणे आने के बाद मैंने देखा कि दरअसल जो सिनेमा में दिख रहा है वो समाज का अक्स ही है, सिर्फ अंतर्वस्त्र दर्शना जीन्स (मराठी में जिसे मज़ाक में ABCD यानि "अगो बाइ चड्डी दिसते" भी कहते हैं) ही नहीं आर्दश भी हैं आल टाईम लो। पुणे यूनिवर्सिटी हो या सिम्बी, देर रात तक काममोहित जोड़ों को मंडराते देखना आम बात है। मेरे एक मित्र ने कहा कि पुणे मुम्बई में ज्यादा सुरक्षा होने का कॉलेज षोडषियां अब नाजायज फायदा उठा रही हैं।

बहरहाल, अबला नारी का जो तमगा साहित्य में जड़ा जा चुका है वह शहरी क्षेत्र में किसी भी हालत में लागू नहीं हो सकता। यहां की नार गाड़ियाँ ही नहीं हर जगह "स्पीड" की ख्वाहिशमंद हैं। नौकरियों ने उन्हें जरूरी आत्मविश्वास भी दिया है। जो नौकरी न भी करती हों पर जिनके मम्मी पापा ने उन्हें बहुत कुछ दिया है उनके पतियों को भी यह बात भूलने नहीं दी जाती। दरवाज़े पर नेमप्लेट से लेकर, मेडेन सरनेम रखने की जिद तक। "माई वाईफ्स मर्डर" में बोमन ईरानी के निभाये ईंस्पेक्टर के किरदार को उसकी पत्नी यह भूलने नहीं देती कि उसकी पदौन्नति "पापा" की कृपा है। आज लक्ष्मण का कार्टून (देखें चित्र) देखा तो फिल्म का यह अंश याद आ गया। तो भैया अगली दफा किसी शहरी अबला नारी के संतापों की कहानी देखने पढ़ने के पहले हम नमकदानी साथ ज़रूर रखेंगे।

Friday, September 02, 2005

पौ बारह

और मुझे लगता था कि ब्लॉगिंग कर भारी पैसा नहीं बनाया जा सकता। डैरेन हर रोज लगभग २३००० रुपये कमाते हैं।

Saturday, August 06, 2005

छा न पाई बदली

टैगिंग का जोर बढ़ता जा रहा है। इस बीच देसीपंडित पर देखा तो पता चला टैगक्लाउड यानी "टैगों की घटा" के बारे में। मज़ेदार चीज़ है, काफी कुछ टेक्नोराती टैग जैसी। अब जब हिंदी ब्लॉगमंडल में ८० से ज्यादा चिट्ठों का जमघट हो गया है तो टैगक्लाउड से ब्लॉगमंडल में चलती बातचीत के लोकप्रिय विषय जानने के लिये यह बेहतरीन तरीका होता और मैं यह बदली चिट्ठाविश्व पर डालने की सोच रहा था, दुर्भाग्य से यह अंग्रेज़ी शब्द ही बटोरकर दिखाता रहा। टैगक्लाउड वालों को लिखा कोई जवाब न आया, फिर पता लगा कि हजरत याहू की टर्म एक्सट्रैक्शन प्रणाली की मदद लेते हैं। आनन फानन एक जुगाड़ बनाया और तफ्तीश की तो पता लगा कि परेशानी की जड़ यही है, यह अंग्रेज़ी के अलावा कोई और भाषा पर ध्यान नहीं देता। इस टेस्ट पृष्ठ पर हिन्दी के वाक्यांश दे कर देखें तो पता लगेगा।

वैसे याहू की REST पर आधारित यह मुफ्त सेवा सीधी और सरल है। एक्टिवेशन कुंजी पट मिल जाती है और गति तो कमाल की है, वाक्यांश चाहे जितने भारी भरकम हो, जवाबी क्षमल तुरंत हाज़िर। इस सेवा को लोग अलग अलग तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं, कुछ लोग सख्त ख़फा भी हैं, टैगक्लाउड वाले टर्म यानि पद की श्रेष्ठता के आधार पर घटा बनाता है तो साईमन ने इसे आटोमैटिक टैग बनाने के अस्त्र के रूप में ढाल लिया। मैंने अपने अंग्रेज़ी चिट्ठे पर टैगक्लाउड डाल भी दिया। आप भी कुछ सोचिये!

Wednesday, July 20, 2005

चांद पर चीज़

रश्क होता है गूगल के लोगों की खिलंदड़ी पर। गूगल मैप्स के कुछ लोगों का ताज़ा शगल है गूगल मैप्स पर आधारित गूगल मून। १९६९ की मानव के चंद्रमा पर पदार्पण के नासा के चित्रों पर आधारित जालस्थल। अब आप पूछेंगे कि शीर्षक में यह "चीज़" क्या बला है! ये तो आपको तभी पता चलेगा जब आप चित्र पर ज़ूम इन करेंगे।

Tuesday, July 19, 2005

नाम गुम जायेगा

वैसे मैं जीमेल नाम का इस्तेमाल गूगल मेल की तुलना में कम ही करता था, पर खबर है कि ट्रेडमार्क की लड़ाई में हार के नतीजतन गूगल मेल "जीमेल" नाम का प्रयोग अब नहीं कर पायेगा। तो क्या नाम होना चाहिये आपके मुताबिक? [कड़ी आभार: एरिक]

Thursday, June 23, 2005

असली या नकली

अमर सिंह का कथित ब्लॉग पढ़ा। इतने दिनों से सबका लेखन पढ़ते पढ़ते पता चल जाता है कि कौन "में" को "मे" लिखता है, कौन पूर्णविराम की जगह बिंदु लगाता है, कौन किताबें "पड़ता" है, कौन पढ़ता नहीं, कौन लेखन की "ईच्छा" रखता है और कौन कॉमा के पहले "स्पेस" छोड़ता है, कौन लेफ्टी और कौन समाजवादी। यू.पी वाले सबूत बहुत छोड़ जाते हैं, पर कनपुरिये ही बनाये और बन भी जायें, अटल जी कहते "ये अच्छी बात नहीं है"! बहरहाल जब तक संदेह की पुष्टि न हो, संकेत बस इतने ही।

Wednesday, June 15, 2005

कोई कहे कहता रहे

नेता बनने के लिये जिस्मानी और रूहानी खाल दोनों का मोटी होना ज़रूरी है। जीवन का आदर्श वाक्य होना चाहिये "कोई कहे कहता रहे कितना भी हम को..."। बेटे के साथ अन्याय के नाम पर कब्र मे पैर लटकाये करूणानिधि ने नई पार्टी तैरा दी, राज्यपाल बूटा सिंह के राज्य की नौका के पाल खुलम्म खुल्ला उनके बेटे संभाल रहे हैं, काबिना मंत्री और मातृभक्त मणिशंकर अय्यर एक तेल कूँए का उद्घाटन करने पहुँचे तो उसका नामकरण अपनी अम्मा के नाम पर कर दिया, गोया यह देश की नहीं व्यक्तिगत संपत्ति हो। दागी मंत्रियों को निकालने के लिये संघटन और विपक्ष दोनों लामबंद हैं पर वे बेफिक्री से सत्तासुख भोगते हुए अपनी सात पुश्तों की पेंशन फंड तैयार कर रहे हैं। वर्तमान काँग्रेसी सरकार ने तो सरकारी तंत्र में एक और सतह का परोक्ष निर्माण कर दिया है। पहले राष्ट्रपति को लोग रबर स्टैम्प का पद कहते थे अब ऐसा पद प्रधानमंत्री के लिये भी बन गया। पराये खड़ाउं रख कर राज चला रहे हैं मनमोहन। लोग हाय तौबा करते रहें सत्ता के दो केद्रों पर, अपन तो कानों में रुई डाल कर रूस की राजकीय यात्रा करेंगे।

सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा कर कई निशानों पर तीर चलाये।
अब सामंती और जमींदारी राज के दिन तो कथित रूप से ख़त्म हो गये थे पर लोगों के तेवर कहाँ जाते हैं। वैसे मैं नवाब पटौदी की बात नहीं कर रहा। ये बात उसी परिवार की है जिस के नाम के बिना काँग्रेस की पहचान नहीं बन पाती। पता नहीं आप ने यह ध्यान दिया कि नहीं कि किस चतुराई से सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा कर कई निशानों पर तीर चलाये। राजनीतिक अनुभवहीनता से जो बट्टे उन पर लगते उन से से बचने का यह जोरदार तरीका था ही, राजीव के अनुभव से वह कम से कम यह तो सीख ही चुकी होंगी कि ऐसे में सरकार तो किचन कैबिनेटें ही चलातीं हैं और अनजाने ही बोफोर्स जैसी पाप की गठरिया कोई बगल में सरका दे तो इज्जत भी खराब होती है। परोक्ष रूप से सरकार चलाने से पब्लिक की नज़र से बचकर अपना उल्लू सीधा करना ज्यादा आसान है। एक और निशाना जो साधा गया वह है राहुल का औपचारिक रूप से राजकुमार के रूप में पदस्थापन। राजकुमार का राज्याभिषेक करने के पूर्व ईमेज बिल्डिंग करना तो ज़रूरी है ही सो सरकारी भोंपू काम में लाये जा रहे हैं। जनता पहचान ले अपने राजकंवर को, निहाल हो जाये, फिदा हो जाये, और जब ट्रकों से उतरें तो आँखें मूँद कर शहीद पिता और बलिदानी माता के सलोने पुत्र को बिना पाँच का नोट लिये वोट डालने को तैयार हो जाये।

एक दिन समाचार देख रहा था दूरदर्शन पर। समाचार वाचक ने अमेठी की खबर दी, राजकुमार ने सगरे गाँव बिजली देने का वादा पूरा किया था, गाँव वालों को याद भी न होगा कि ये वादे कितनी बार किये गये। सरकारी उद्यम भेल के लोग भी मंच पर थे। प्रसारण "सीधा" हो रहा था, मानो संयुक्त राष्ट्र में पी.एम भाषण दे रहे हों। कैमरे के दायरे में फंसे सज्जन पात्र परिचय के बाद राजकुमार के गुण गाने लगे। प्रसारण सीधा चलता रहा। काफी देर बाद शायद निर्माता की तंद्रा भंग हुई और वे वापस लौटे सामंती सम्मोहन से। हैरत तब हुई जब दूरदर्शन ने दूसरे दिन के समाचारों में पुनः इसी समारोह की टीवी रपट दिखलाई। पी.एम.ओ ने डपट लगाई होगी, "टाईम का हिसाब नहीं रखते, समाचार को दस मिनट डीले नहीं कर सकते थे। राजकुमार का क्लोज़अप तक नहीं। अगर मैडम ने देख लिया होता तो मैं जाता इम्फाल और तुम जाते श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र!" वैसे राहुल मुँहफट हैं, राजनयिक बोली अभी सीखी नहीं हैं सो चचा संजय नुमा निपट सोचते बोलते हैं, जतला दिया कि बुलाया था सो आये बाकी कुछ खबर नहीं।

तो हम लोग ये देखते रहेंगे, सोचते रहेंगे, लिखते रहेंगे। इस बीच ईमेज बिल्डिंग की कवायद पूरी हो जायेगी, भाड़े की संस्थायें बाजार सर्वेक्षण कर हवा का रूख बतलायेंगी और उचित समय देखकर हो जायेगा राज्याभिषेक। मनमोहन जी खड़ाउं राज करने के लिये शुक्रिया! आप जायें। एकाध संस्मरण छपवा लें, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, फिर जो आप कहें। हमारे बच्चे स्कूली निबंध में लिखेंगे कि जमींदार होते थे कभी। पत्रकार भवें उमेठकर परिवारवाद की भर्त्सना करेंगे फिर सरकार की पहली वर्षगाँठ पर ६ चिकने पेज का परिशिष्ट छापेंगे। उधर इतालवी स्पा में बबल बाथ लेते राजकुमार की त्वचा भाप से कठोर होने के गुर लेती रहेगी। कोई कहे कहता रहे...

Monday, June 13, 2005

असाधारण है रियली सिंपल सिंडिकेशन

ब्लॉग जब खूब चल पड़े और चारों और इनके चर्चे मशहूर हो गये तो इसी से जुड़ा एक और तंत्र सामने आया। जिस नाम से यह पहले पहल जाना गया वह ही इसका परिचय भी बन गया। यूं तो आर.एस.एस एक तरह का क्षमल प्रारूप है और इसके बाद आर.डी.एफ, एटम यानि अणु जैसे अन्य प्रारूप भी सामने आये हैं पर आर.एस.एस एक तरह से क्षमल फीड का ही पर्याय बन गया है। जिस भी जालस्थल से आर.एस.एस फीड प्रकाशित होती है पाठक ब्लॉगलाईंस जैसे किसी न्यूज़रीडर के द्वारा बिना उस जालस्थल पर जाये उसकी ताज़ा सार्वजनिक प्रकाशित सामग्री, जब भी वह प्रकाशित हो, तब पढ़ सकते हैं। यह बात दीगर है कि जालस्थल के मालिक ही यह तय करते हैं कि फीड में सामग्री की मात्रा कितनी हो और यह कितने अंतराल में अद्यतन रखी जावेगी।

आर.एस.एस अभी विकास के दौर से गुजर रहा है और लोग इसके उन्नत और अनोखे प्रयोग करने के नित नये तरीकें खोजने में लगे हैं।
आज आलम यह है कि ब्लॉग हो या समाचारों की साईट, जिन जालस्थलों की विषय वस्तु नियमित रूप से बदलती रहती है, आर.एस.एस फीड का उनके जालस्थल से चोली दामन का साथ बन गया है। आर.एस.एस कि पृष्ठभूमि में प्रयुक्त हो रही मूल तकनीक, यानि पुश तकनलाजी, कोई नयी बात नहीं है। ९० के दशक में काफी जोरशोर से काम में लाये गये हैं ये। इस बार जो बात अलग है वो यह है कि आर.एस.एस को व्यापक रूप से मान्यता दी गयी और अपनाया गया। तकनीकी तौर पर आर.एस.एस काफी आकर्षित करता रहा है जालस्थल कंपनियों को। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं अगर आप याद करें कि विगत माह ही आस्क जीव्ह्स ने आनलाईन न्यूज़रीडर जालस्थल ब्लॉगलाईंस को खरीद लिया था। अब हर बीतता दिन आर.एस.एस के साथ साथ अन्य कई और कार्यों को भी राह दिखाता है। आर.एस.एस फीड है, तो टेक्नोराती, फीडस्टर जैसे आर.एस.एस खोज जैसे जालस्थल भी हैं। फीडडेमन, बलॉगलाईंस, सिंडिक ८ जैसे आर.एस.एस विषयवस्तु को पढ़ने में मदद करने वाले एग्रीगेटर्स या न्यूज़रीडर हैं तो आर.एस.एस फीड को प्रकाशित करने वाले तंत्र भी हैं। देखा जाये तो आर.एस.एस अभी भी विकास के दौर से गुजर रहा है और लोग इसके उन्नत और अनोखे प्रयोग करने के नित नये तरीकें खोजने में लगे हैं। इनमें विज्ञापन एक विशेष क्षेत्र है।

किसी भी जालस्थल की आर.एस.एस फीड होने का मतलब है कि लोग आपकी साईट बिना वहाँ आये पढ़ सकते हैं, भला कौन जालस्थल संचालक ये चाहेगा। इसे रोकने का एक तरीका तो यह हो सकता है कि आप संपूर्ण सामग्री न देकर फीड में कड़ी के साथ केवल सामग्री का सारांश प्रकाशित करें। इससे पाठक को पूरी सामग्री पढ़ने के लिये आपकी साईट पर आना ही पढ़ेगा। समाचार साईटों के लिये ये आला उपाय है जो सिर्फ समाचार शीर्षक ही प्रकाशित करें। हालांकि कालक्रम में यह पाठकों को उबा भी सकता है। दूसरा तरीका यह कि फीड में सामग्री थोड़ी ज्यादा या पूर्णतः रखी जाये पर हर प्रविष्टि के साथ विज्ञापन हों। यह तकनीक अभी इतनी परिष्कृत नहीं हुई है हालांकि गूगल एडसेंस के फीड के मैदान में उतरने के बाद माज़रा ज़रूर बदलेगा। एडसेंस की मूल भावना की तर्ज़ पर ही विज्ञापनों को टेक्स्ट या चित्र के रूप में फीड में प्रकाशित कर दिया जायेगा। तकनीक ये सुनिश्चित करेगी कि विज्ञापन का मसौदा जब पाठक फ़ीड पढ़ रहे हों तभी आनन फानन तैयार हो, बजाय इसके कि जब इसका अभिधारण हो रहा हो। सब्सक्रिप्शन आधारित सामग्री के प्रकाशन के लिये ये नये युग का सूत्रपात करेगा।

इसके अलावा भी लोग दिमाग पर ज़ोर लगा रहे हैं। आर.एस.एस फीड किसी भी साइट को बिना वहाँ जाये पढ़ना तो बायें हाथ का खेल बना देता है पर पारस्परिक व्यवहार या बातचीत का तत्व हटा देता है, संवाद दो तरफा नहीं रहता। अक्सर प्रविष्टि के साथ टिप्पणी की कड़ी तो रहती है पर टिप्पणी करनी हो तो अंततः जाना आपको साईट पर पड़ेगा ही। अब लोगों ने फीड में HTML फार्म का समावेश कर संवाद का पुट जोड़ने की कोशिश की है। स्कॉट ने अपनी फीड में यह प्रयोग किया ताकि लोग गुमनाम रहकर भी उनकी किसी भी प्रविष्टि को "टैग" कर सकें। याहू में कार्यरत रस्सेल एक कदम और आगे निकले, हाल ही में अपनी फीड में उन्होंने टिप्पणी करने का नन्हा सा HTML फार्म ही जोड़ दिया।

तकनलाजी के दीवाने आर.एस.एस के और उन्नत प्रयोगों के बारे में भी कयास लगा रहे हैं। जैसे कि इनका ऐसे ऐजेंट के रूप में प्रयोग जो समय समय पर अंतर्जाल से वांछित ताज़ी सामग्री खंगाल कर ला दे। या फिर ऐसे औज़ार के रूप में जिससे आप अपने कैलेंडर, संपर्क पते जैसी जानकारी साझा कर सकें। कल्पना कीजिये कि विभिन्न कंपनियाँ अपने उत्पादों के बारे में नवीनतम जानकारी, मूल्य सूची ईमेल के बजाय फीड से भेजें तो कितनी आसानी हो जाये। या फिर विश्वविद्यालय अपनी पाठ्य सामग्री इस तरह से भेजें। ये बातें बहुत उम्मीदें जगाती हैं। साथ में अनगिनत परेशानियाँ भी जुड़ी हैं, सिक्योरिटी और व्यक्तिगत पसंद संबंधी। क्या फीड को पासवर्ड द्वारा सुरक्षित कर या ईमेल ग्रुप की तरह किसी विशिष्ट समूह लोगों तक ही इसकी पहुँच सुनिश्चित करना मुमकिन है? आजकल के न्यूज़रीडर तो केवल सामग्री को फीड से अभिधारित कर तय प्रारूप में आप दर्शाते हैं। क्या पाठक यह तय कर सकेगा कि फीड में कौन सी जानकारी कितनी आये, कब और किस रूप में आये? क्या वह सामग्री का विश्लेषण कर पायेगा? ऐसे कई अनुत्तरित सवालों का जवाब लोग खोज रहे हैं। और मुझे लगता है कि जवाब जल्द ही आयेंगे?

Tuesday, June 07, 2005

सृजनात्मकता और गुणता नियंत्रण

उत्पाद चाहे कैसा भी हो गुणता यानि क्वालिटी की अपेक्षा तो रहती ही है। भारतीय फिल्मों के बारे में कुछ ऐसा लगता नहीं है। शायद इसलिये कि सफलता के कोई तय फार्मुले नहीं हैं और गुणता नियंत्रण की संकल्पना किसी क्रियेटिव माध्यम में लाना भी दुष्कर है। यह बात भी है कि जब बड़े पैमाने पर कोई फिल्म बनती है तो कुछ न कुछ कमियां तो रह जाना वाजिब है। नायिका नीले रंग की साड़ी पहन कर घर से निकले और बाज़ार में विलेन द्वारा किडनेप किये जाते वक्त साड़ी का रंग पीला हो जाये (ये कथन रंग के ताल्लुक में ही है)। नायक को चोट दायें हाथ में लगे और अगले दृश्य में पट्टी बायें हाथ पर दिखे। यह सब तो हजम करना ही पड़ता है, फिल्मों में कंटिन्युटि ग्लिच तो बड़ी आम बात है। वैसे मैंने यह कहने कि लिये लिखना शुरू किया था कि फिल्म के कुछ दूसरे विभाग भी इस से अछूते नहीं रहते।

बेनेगल की फिल्म सुभाष के संगीत को ही ले लिजिये। मैं रहमान का प्रशंसक हूं पर ईमानदारी से कहें तो उनकी आवाज़ प्लेबैक के लायक नहीं है। यह सच है कि उन्होंने अपने गानों में कई बार अनगढ़ आवाजों का प्रयोग किया है पर हर गाना तो पट्टी रैप नहीं होता न! सबसे बड़ी बात यह है कि उनका हिन्दी उच्चारण काफी खराब है (मुझे मालूम है की यह उनकी मातृभाषा नहीं है, यह बात किसी भी गैर हिन्दी गायक के लिये लागू होगी पर यह भी कहना पड़ता है कि फिर यशोदास, एस.पी.बालसुब्रमन्यम जैसे गायक यह करिश्मा कैसे कर दिखाते थे)। यहीं मुझे एहसास होता है कि काफी तरीकेवार सिनेमा निर्माण करने वाले बेनेगल ने ऐसी एपिक सागा बनाते वक्त संगीत पक्ष पर ध्यान क्यों नहीं दिया। क्या रहमान का कद निर्देशक से भी उँचा हो गया कि वे कह न सके, "अरे रहमान, यह गाना रूपकुमार राठौर से गवा लो"। हो सकता है रहमान रूठ कर बोले हों, "गाना मुझे नहीं तो संगीत ही नहीं", तो कम से कम यह तो बोला जाना चाहिये था कि ऐसा है तो हिन्दी उर्दु की ट्यूशन ले कर आवो, कम से कम "था" को "ता" तो नहीं बोलोगे। अगर रहमान फिर भी अड़े रहें कि रेमो ने "पियार टो हुना हि ता" गाया तो आप क्यों चुप थे तो मेरे ख्याल से बेनेगल यह निर्णय ले सकते थे कि रहमान को काला पानी कहाँ भेजा जाये। जब आत्ममुग्धता सृजनात्मकता पर हावी हो जाये तो गुणवत्ता की वाट तो लगनी ही है।

Monday, June 06, 2005

संदेशों में दकियानूसी

अपना मुल्क भी गजब है। सवा १०० करोड़ लोग उत्पन्न हो गये पर सेक्स पर खुली बात के नाम पर महेश भट्ट के मलिन मन की उपज के सिवा कुछ भी खुला नहीं। भारत किसी अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता में कोई रिकार्ड भले न तोड़ पाया हो पर एड्स के क्षेत्र में सतत उन्नति की राह पर अग्रसर है। सरकारी बजट बनते हैं तो करोड़ो की रकम रोग का फैलाव रोकने और जन जागृति लाने के लिये तय होती है पर न जाने किन उदरों में समा जाती है। जब युवाओं में खुल्लम खुल्ला प्रेम के प्रायोगिक इज़हार की बातें सुनता देखता हुँ तो लगता है कि या तो इन तक संदेश की पहुँच तो है ही नहीं या फिर संवाद का तरीका ही ऐसा है कि कान पर जूं नहीं रेंगती।

गत कुछ सालों तक शहर देहातों तक सरकार कहती थी "एड्सः जानकारी ही बचाव है"। बढ़िया है, जानकारी होनी चाहिये। पर कौन सी जानकारी? "क्यों दद्दा? एड्स से कैसे बचोगे?", "जानकारी से भईया, और कैसे?" गोया जानकारी न हो गयी, एस.पी.जी के कमांडो हो गये। मिर्ज़ा बोले, "अरे मियां! अहमक बातें करते हो। सारा पाठ एक बार में थोड़े ही पढ़ाया जाता है। पहले साल कहा, जानकारी होनी चाहिये। फिर दूसरे साल कहेंगे, थोड़ी और जानकारी होनी चाहिये। जब पाँचेक साल में यह पाठ दोहरा कर बच्चे जान जायेंगे कि भई हाँ, जानकारी होनी चाहिये तब पैर रखेंगे अगले पायदान पर"। सरकारी सोच वाकई ऐसी ही लगती है। आश्चर्य होता है कि जिन एजेंसियों को काम सोंपा जाता है उनकी कैसी समझ है मास कम्यूनिकेशन की। मुद्दे पर सीधे वार करने की बजाय अपनी डफली पर वही पुराना राग। अरे सीधे क्यों नहीं बताते कि भईये अनजान लोगों से सेक्स संबंध रखने से बचो, खास तौर पर जिस्म की मंडियों से परहेज़ रखो। और अगर चमड़ी मोटी है और बाज़ नहीं आ सकते अपनी आदतों से तो काँडोम का सही इस्तमाल करो। अस्पतालों में, होशियार रहो कि "नये डिस्पोजेबल" या अच्छी तरह उबले सिरिंज ही छुएं शरीर को। यदि रोग लग गया है तो दूसरो को संक्रमित करने या बच्चे को जन्म देने की न सोचो।

बहरहाल, पिछले साल से सरकारी भोंपू पर राग बदला है। बढ़े अच्छे और दो टूक बात करने वाले कुछ सीरियलों की बात मैं कर चुका हूँ, यह बात अलग हैं कि अब ये कार्यक्रम प्राईम टाईम से नदारद हैं। निःसंदेह संदेश कुछ स्पष्ट होना शुरु हुये हैं। इसके अलावा गर्भपात और गुप्त रोगों पर भी बात स्पष्ट रूप से रखी जा रही है। जिस दकियानूसी की सेंसर बोर्ड में ज़रूरत है वह सरकारी संदेशों में न ही आये तो अच्छा।

Sunday, June 05, 2005

मुगालते में ऐश है

हम भारतीय तो जन्मजात हिपोक्रिट हैं ही। कथनी और करनी का अंतर न हो तो हमारी पहचान ही विलीन हो जाये। कुछ दिनों पहले जब देह मल्लिका के कॉन्स के पहनावे की बात आयी जिसमें कपड़ा कम और जिस्म ज़्यादा था तो मुझे मल्लिका और ऐश्वर्या कि महत्वाकाक्षांओं में कुछ खास फर्क नहीं नज़र आया। दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय रूपहले पर्दे पर जाने को आशावान हैं। इस राह में जिस्म की खास भूमिका है, बस दोनों अभिनेत्रियों का अप्रोच खासा अलग है। मल्लिका की साफगोई की दाद देनी पड़ेगी। वे जानती हैं और स्वीकार भी करती हैं कि चमड़ी के भरोसे सफलता मिलना तय है। इसके उलट अपनी भोली भाली छवि के अनुरूप ऐश ऐसा दिखाती हैं कि वे काजल की कोठरी में रहकर भी दूध सी सफेद बाहर निकलेंगी। "मैं सेक्स सीन नहीं दूँगी, किस नहीं नहीं।" देसी फिल्मों में उन्होंने कोई तरीका तो नहीं छोड़ा जिस से उनके शरीर कि रचना की गणना न की जा सके। ज़्यादा दूर क्या जाना, हाल का लक्स का नया विज्ञापन देखें, छुईमुई ऐश्वर्या न जाने कहाँ कहाँ गोदना गुदवा रही हैं वो भी इतने अशोभनीय (ओह माफ कीजियेगा, नयी भाषा में इसे सेक्सी कहा जाता है, है न!) तरीके से कि...। इससे तो मल्लिका जैसी अभिनेत्रियाँ ही भली, चमड़ी बेच रही हैं तो किसी मुगालते में नहीं हैं और न ही छूईमुई और बुद्धिमान बने रहने का दिखावा करती हैं। मर्द को लुभाने वाली चीज़ स्त्री के मस्तिष्क के काफी नीचे बसती हैं यह बात तो ऐश भी जानती हैं। पर मुगालते पालना भी कोई बुरी बात नहीं। जब भविष्य में भारतीय पुरुष उनकी पंद्रह मिनट की भूमिका वाली जगमोहन मूँदड़ा निर्मित हॉलीवुड की कोई फिल्म जब देखेंगे तो ऐश्वर्या के शरीर और "अभिनय क्षमता" को ज्यादा बेहतर सराह पायेंगे।

सप्ताह का किस्सा


चापलूसी की हद

Tuesday, May 03, 2005

जेनेरिक गोरखधंधा

पुणे में आईटी वालों की भरमार है। शहर भी ऐसा है कि लोग बस जाने की सोचते हैं। शहर भी आखिर कितना समोये, सो गुब्बारे की तरह फैल रहा है। वैसे यहाँ के औंध और बानेर जैसे इलाके लोगों की पहली पसंद हैं, सुविधाओं और कार्यस्थल से नज़दीक होने के कारण। चुंकि दावेदार ज्यादा हैं तो दाम सर चढ़कर बोल रहे हैं। हजारों की संख्या में नये प्रोजेक्ट आ रहे हैं। लोकल अखबारों को विज्ञापन समेटने के लिये अतिरिक्त परिशिष्ट निकालने पड़ रहे हैं। मज़े की बात यह की शहर के किसी भी कोने में बना हर अपार्टमेंट पहले से ही ७० प्रतिशत बुक्ड होता है, अब लीजिये पांचवी मंजिल का फ्लैट जहाँ टैरेस किचन में खुलता है, लिविंग रूम में नहीं। यह तो तब, जब अंटी में खासी रकम हो। मध्यम वर्गीय परिवार के लिये आस लगाये बैठने के अलावा चारा नहीं।

खैर जो बात कहना चाहता था वह रह ही गई। अपने आफिस के नज़दीक औंध जैसे अच्छे इलाके में ज्यादातर लोग आशियानां बनाना चाहते हैं। जब आप फ्लैट देखने पहूँचे तो पहली नज़र में ही लगेगा कि काफी बहुत दूर है। "अजी दूर कहाँ, ये जेनेरिक औंध हैं", बिल्डर तपाक से कहेगा। आप खुश! अभी कुछ दिन पहले अखबार में एक पाठक का पत्र पढ़ा। लिखा था, "सारी जिंदगी पुणे में बिता दी, शहर के चप्पे चप्पे से वाकिफ हूँ पर आज तक कभी औंध एनेक्स या जेनेरिक औंध नहीं देखा।" भई देखेंगे तो तब जब ये होंगे। दरअसल ये सारी मिलीभगत बिल्डरों की ही है। अब औंध से २०-२५ किमी दूर के इलाके भी इन्होंने औंध में खींचने के ईरादे से इन नये काल्पनिक नामों की रचना कर दी। शहर में नये आये लोगों को औंध से मीलों दूर का इलाका औंध के नाम पर बेचना आसान है इस तरह। बड़ा अजीब गोरखधंधा है यह। इनका बस चले तो लोनावला को भी पुणे एनेक्स पुकारने लगे कल।

Monday, May 02, 2005

नैन भये कसौटी

दूरदर्शन पर "गोदान" पर आधारित गुलज़ार की टेलिफिल्म आ रही है। पंकज कपूर के किरदार का मृत्यु द्श्य है। श्रीमतीजी, पुत्र और मैं सभी देख रहे हैं। पर अविरल अश्रु बह रहे हैं मेरी आँखों से। जी नहीं, बंद कमरे में भला आंखों में किरकिरी कैसी? यह कोई नयी बात नहीँ है। टी.वी. हो या फिल्म, कोई पात्र दम तोड़ रहा हो या हो कोई भारी इमोशनल सीन, मेरे नेत्र फफकने में देर नहीं लगाते। मज़ा तब और आता है जब मैं अपनी माँ के साथ बैठा हूँ, तब दो जोड़ी आँखों से बहती गंगा जमुना का दृश्य भी देखा जा सकता है।

मैं अंदाज़ लगा सकता हूँ आप क्या सोच रहे हैं इस समय। हैं! पुरुष होकर रोता है? रोना तो मूलतः जनाना गुण है। भई क्या करें, "मर्द को दर्द नहीं होता" या "ब्यॉज़ डोंट क्राई" जैसे जुमले अपने लिये फिट नहीं बैठते। इतने वर्षों के अनुभव के बाद तो अब मेरी आँखें भावनाओं की गहराई नापने की कसौटी बन चुकी हैं। हर ऐरे गैरे दृश्य पर नहीं बहती ये धारा।

अब तो कोई ऐसा दृश्य शुरु हुआ नहीं कि पत्नी बार बार पलट पलट कर मेरे नैनों में झांक लेती हैं। मैं प्रयास करता हूँ कि टोंटी बंद रहे, गला ईमोशन से चोक हुआ जाता है, आखों का मर्तबान लबालब भरा, पर कोशिश जारी रहती है, हो सकता है दृश्य खत्म होने तक भाप बनकर उड़ जायें। पर १०० में से ९० मौकों पर ऐसा होता नहीं। पत्नी कनखियों से मेरे डबडबाते नैन देख कर मुस्करा भर देती हैं, ज्यों कहती हों कि चलो रो लो जी भर, मैंने नहीं देखा। पर म्युनिसिपल्टी की नलों की नाई सुष्क उनकी भली आँखों में नाराजगी साफ दर्ज होती है, "कभी दो आँसू मेरे लिये भी टपका लिया करो आर्यपुत्र!"

Tuesday, April 19, 2005

हाईकू हुए विचार -‍ १

दिन न दूर
मेड इन चाइना
आलू भी बिकें।

Thursday, February 24, 2005

अनुगूंज ६: चमत्कार या संयोग?

Akshargram Anugunjवैसे तो मैं सर्टिफाईड नास्तिक हूँ पर मेट्रिक्स देखने के बाद से मैं इसकी थ्योरी का कायल भी हो गया। कई दफा जीवन में ऐसा हो जाता है कि इस बात पर यकीन सा होने लगता है कि जीवन मानो कोई कंप्यूटर सिमुलेशन हो। एम.आई.बी के अंतिम हिस्से में मेरे इस विचार से मिलता जुलता दृश्य था जिसमें पृथ्वी पर से कैमरा ज़ूम आउट करता है और हमारी आकाशगंगा से होते हुए बाहर चलता ही जाता है। जान पड़ता है कि जो हमारे लिए विहंगम है, विराट है वो किसी और के लिए हैं महज़ खेलने की गोटियाँ। ये रिलेटिविटि मुझे बड़ा हैरान करती है। हाल ही मैं अपनी पुरानी कंपनी की प्रॉविडेन्ट फंड के बारे मे दरियाफ्त कर रहा था, रकम के अंक पर नज़र पड़ी १९४७८। बड़ा जाना पहचाना सा अंक लगा, पर हैरत भी हुई, दो चार अंक का मेल संयोग वश हो ही जाता है, ये तो पाँच अंक थे। दिमाग पर ज़ोर डाला तो याद आया कि ये तो किसी पूर्व नियोक्ता के यहाँ मेरी इम्प्लाई आई.डी थी। हूबहू वही नंबर! कैसा चमत्कार था यह?

Friday, January 14, 2005

पहला ख़ुमार

पहले प्यार की बात चल पड़ी तो मुझे भी पहला प्यार याद आ गया। परिणती तक भले न पहुँचा हो पर मन में किसी कोने में यादों की महक तो बाक़ी है। किस्सा चुंकि नितांत निजी है इसलिए सुना कर बोर नहीं करूँगा। पर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ उन दिनों लिखा एक गीत। कॉलेज के समय तो पूरा जीवन ही मेलोड्रामा से लबरेज़ रहता है, लिहाज़ा यह गीत भी काफी हद तक फ़िल्मी है। विनयजी बता पायेंगे कि मीटर ठीक ठाक है या नहीं। उन दिनों इस गीत के सस्वर पाठ करने की मेरे मित्र बड़ी गुजारिश करते थे खास तौर पर वो जिन्हें इश्क का नया नया रोग लगा था। तो प्रस्तुत है यह गीत "मित्र मान लो"।

मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!

याद आता है समां वो जब हुआ था रुबरु,
दिल ने तभी था चाहा कि हो दोस्ती शुरु,
बुज़दिल था मैं जो कह न पाया, यही मान लो,
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!

कितने किये इशारे पर रही तू बेखब़र,
थे अरमां अपने कबसे बने तू हमसफ़र,
आसां न रहा लिखना प्रेमपत्र जान लो,
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!

तेरे सलोने रूप में खोया हुँ मैं सदा,
उन्मुक्त सी हँसी तेरी जाती है गुदगुदा,
रह न पाऊँगा तेरे बिन इतना जान लो,
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!

चेहरा तेरा निर्दोष है मासूमियत भरा,
हिरणी सी आँखों में हो जैसे भरी सुरा,
अनुराग मेरा तुमसे है पवित्र जान लो।
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!

मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!

Saturday, January 01, 2005

शुभ नववर्ष!

नुक्ताचीनी के पाठकों और सभी मित्रों व उनके परिवार को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ। २००५ आपके मन की हर मुराद पूर्ण करे, यही मेरी मंगलकामना है।