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Thursday, June 23, 2005

असली या नकली

अमर सिंह का कथित ब्लॉग पढ़ा। इतने दिनों से सबका लेखन पढ़ते पढ़ते पता चल जाता है कि कौन "में" को "मे" लिखता है, कौन पूर्णविराम की जगह बिंदु लगाता है, कौन किताबें "पड़ता" है, कौन पढ़ता नहीं, कौन लेखन की "ईच्छा" रखता है और कौन कॉमा के पहले "स्पेस" छोड़ता है, कौन लेफ्टी और कौन समाजवादी। यू.पी वाले सबूत बहुत छोड़ जाते हैं, पर कनपुरिये ही बनाये और बन भी जायें, अटल जी कहते "ये अच्छी बात नहीं है"! बहरहाल जब तक संदेह की पुष्टि न हो, संकेत बस इतने ही।

Wednesday, June 15, 2005

कोई कहे कहता रहे

नेता बनने के लिये जिस्मानी और रूहानी खाल दोनों का मोटी होना ज़रूरी है। जीवन का आदर्श वाक्य होना चाहिये "कोई कहे कहता रहे कितना भी हम को..."। बेटे के साथ अन्याय के नाम पर कब्र मे पैर लटकाये करूणानिधि ने नई पार्टी तैरा दी, राज्यपाल बूटा सिंह के राज्य की नौका के पाल खुलम्म खुल्ला उनके बेटे संभाल रहे हैं, काबिना मंत्री और मातृभक्त मणिशंकर अय्यर एक तेल कूँए का उद्घाटन करने पहुँचे तो उसका नामकरण अपनी अम्मा के नाम पर कर दिया, गोया यह देश की नहीं व्यक्तिगत संपत्ति हो। दागी मंत्रियों को निकालने के लिये संघटन और विपक्ष दोनों लामबंद हैं पर वे बेफिक्री से सत्तासुख भोगते हुए अपनी सात पुश्तों की पेंशन फंड तैयार कर रहे हैं। वर्तमान काँग्रेसी सरकार ने तो सरकारी तंत्र में एक और सतह का परोक्ष निर्माण कर दिया है। पहले राष्ट्रपति को लोग रबर स्टैम्प का पद कहते थे अब ऐसा पद प्रधानमंत्री के लिये भी बन गया। पराये खड़ाउं रख कर राज चला रहे हैं मनमोहन। लोग हाय तौबा करते रहें सत्ता के दो केद्रों पर, अपन तो कानों में रुई डाल कर रूस की राजकीय यात्रा करेंगे।

सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा कर कई निशानों पर तीर चलाये।
अब सामंती और जमींदारी राज के दिन तो कथित रूप से ख़त्म हो गये थे पर लोगों के तेवर कहाँ जाते हैं। वैसे मैं नवाब पटौदी की बात नहीं कर रहा। ये बात उसी परिवार की है जिस के नाम के बिना काँग्रेस की पहचान नहीं बन पाती। पता नहीं आप ने यह ध्यान दिया कि नहीं कि किस चतुराई से सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा कर कई निशानों पर तीर चलाये। राजनीतिक अनुभवहीनता से जो बट्टे उन पर लगते उन से से बचने का यह जोरदार तरीका था ही, राजीव के अनुभव से वह कम से कम यह तो सीख ही चुकी होंगी कि ऐसे में सरकार तो किचन कैबिनेटें ही चलातीं हैं और अनजाने ही बोफोर्स जैसी पाप की गठरिया कोई बगल में सरका दे तो इज्जत भी खराब होती है। परोक्ष रूप से सरकार चलाने से पब्लिक की नज़र से बचकर अपना उल्लू सीधा करना ज्यादा आसान है। एक और निशाना जो साधा गया वह है राहुल का औपचारिक रूप से राजकुमार के रूप में पदस्थापन। राजकुमार का राज्याभिषेक करने के पूर्व ईमेज बिल्डिंग करना तो ज़रूरी है ही सो सरकारी भोंपू काम में लाये जा रहे हैं। जनता पहचान ले अपने राजकंवर को, निहाल हो जाये, फिदा हो जाये, और जब ट्रकों से उतरें तो आँखें मूँद कर शहीद पिता और बलिदानी माता के सलोने पुत्र को बिना पाँच का नोट लिये वोट डालने को तैयार हो जाये।

एक दिन समाचार देख रहा था दूरदर्शन पर। समाचार वाचक ने अमेठी की खबर दी, राजकुमार ने सगरे गाँव बिजली देने का वादा पूरा किया था, गाँव वालों को याद भी न होगा कि ये वादे कितनी बार किये गये। सरकारी उद्यम भेल के लोग भी मंच पर थे। प्रसारण "सीधा" हो रहा था, मानो संयुक्त राष्ट्र में पी.एम भाषण दे रहे हों। कैमरे के दायरे में फंसे सज्जन पात्र परिचय के बाद राजकुमार के गुण गाने लगे। प्रसारण सीधा चलता रहा। काफी देर बाद शायद निर्माता की तंद्रा भंग हुई और वे वापस लौटे सामंती सम्मोहन से। हैरत तब हुई जब दूरदर्शन ने दूसरे दिन के समाचारों में पुनः इसी समारोह की टीवी रपट दिखलाई। पी.एम.ओ ने डपट लगाई होगी, "टाईम का हिसाब नहीं रखते, समाचार को दस मिनट डीले नहीं कर सकते थे। राजकुमार का क्लोज़अप तक नहीं। अगर मैडम ने देख लिया होता तो मैं जाता इम्फाल और तुम जाते श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र!" वैसे राहुल मुँहफट हैं, राजनयिक बोली अभी सीखी नहीं हैं सो चचा संजय नुमा निपट सोचते बोलते हैं, जतला दिया कि बुलाया था सो आये बाकी कुछ खबर नहीं।

तो हम लोग ये देखते रहेंगे, सोचते रहेंगे, लिखते रहेंगे। इस बीच ईमेज बिल्डिंग की कवायद पूरी हो जायेगी, भाड़े की संस्थायें बाजार सर्वेक्षण कर हवा का रूख बतलायेंगी और उचित समय देखकर हो जायेगा राज्याभिषेक। मनमोहन जी खड़ाउं राज करने के लिये शुक्रिया! आप जायें। एकाध संस्मरण छपवा लें, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, फिर जो आप कहें। हमारे बच्चे स्कूली निबंध में लिखेंगे कि जमींदार होते थे कभी। पत्रकार भवें उमेठकर परिवारवाद की भर्त्सना करेंगे फिर सरकार की पहली वर्षगाँठ पर ६ चिकने पेज का परिशिष्ट छापेंगे। उधर इतालवी स्पा में बबल बाथ लेते राजकुमार की त्वचा भाप से कठोर होने के गुर लेती रहेगी। कोई कहे कहता रहे...

Monday, June 13, 2005

असाधारण है रियली सिंपल सिंडिकेशन

ब्लॉग जब खूब चल पड़े और चारों और इनके चर्चे मशहूर हो गये तो इसी से जुड़ा एक और तंत्र सामने आया। जिस नाम से यह पहले पहल जाना गया वह ही इसका परिचय भी बन गया। यूं तो आर.एस.एस एक तरह का क्षमल प्रारूप है और इसके बाद आर.डी.एफ, एटम यानि अणु जैसे अन्य प्रारूप भी सामने आये हैं पर आर.एस.एस एक तरह से क्षमल फीड का ही पर्याय बन गया है। जिस भी जालस्थल से आर.एस.एस फीड प्रकाशित होती है पाठक ब्लॉगलाईंस जैसे किसी न्यूज़रीडर के द्वारा बिना उस जालस्थल पर जाये उसकी ताज़ा सार्वजनिक प्रकाशित सामग्री, जब भी वह प्रकाशित हो, तब पढ़ सकते हैं। यह बात दीगर है कि जालस्थल के मालिक ही यह तय करते हैं कि फीड में सामग्री की मात्रा कितनी हो और यह कितने अंतराल में अद्यतन रखी जावेगी।

आर.एस.एस अभी विकास के दौर से गुजर रहा है और लोग इसके उन्नत और अनोखे प्रयोग करने के नित नये तरीकें खोजने में लगे हैं।
आज आलम यह है कि ब्लॉग हो या समाचारों की साईट, जिन जालस्थलों की विषय वस्तु नियमित रूप से बदलती रहती है, आर.एस.एस फीड का उनके जालस्थल से चोली दामन का साथ बन गया है। आर.एस.एस कि पृष्ठभूमि में प्रयुक्त हो रही मूल तकनीक, यानि पुश तकनलाजी, कोई नयी बात नहीं है। ९० के दशक में काफी जोरशोर से काम में लाये गये हैं ये। इस बार जो बात अलग है वो यह है कि आर.एस.एस को व्यापक रूप से मान्यता दी गयी और अपनाया गया। तकनीकी तौर पर आर.एस.एस काफी आकर्षित करता रहा है जालस्थल कंपनियों को। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं अगर आप याद करें कि विगत माह ही आस्क जीव्ह्स ने आनलाईन न्यूज़रीडर जालस्थल ब्लॉगलाईंस को खरीद लिया था। अब हर बीतता दिन आर.एस.एस के साथ साथ अन्य कई और कार्यों को भी राह दिखाता है। आर.एस.एस फीड है, तो टेक्नोराती, फीडस्टर जैसे आर.एस.एस खोज जैसे जालस्थल भी हैं। फीडडेमन, बलॉगलाईंस, सिंडिक ८ जैसे आर.एस.एस विषयवस्तु को पढ़ने में मदद करने वाले एग्रीगेटर्स या न्यूज़रीडर हैं तो आर.एस.एस फीड को प्रकाशित करने वाले तंत्र भी हैं। देखा जाये तो आर.एस.एस अभी भी विकास के दौर से गुजर रहा है और लोग इसके उन्नत और अनोखे प्रयोग करने के नित नये तरीकें खोजने में लगे हैं। इनमें विज्ञापन एक विशेष क्षेत्र है।

किसी भी जालस्थल की आर.एस.एस फीड होने का मतलब है कि लोग आपकी साईट बिना वहाँ आये पढ़ सकते हैं, भला कौन जालस्थल संचालक ये चाहेगा। इसे रोकने का एक तरीका तो यह हो सकता है कि आप संपूर्ण सामग्री न देकर फीड में कड़ी के साथ केवल सामग्री का सारांश प्रकाशित करें। इससे पाठक को पूरी सामग्री पढ़ने के लिये आपकी साईट पर आना ही पढ़ेगा। समाचार साईटों के लिये ये आला उपाय है जो सिर्फ समाचार शीर्षक ही प्रकाशित करें। हालांकि कालक्रम में यह पाठकों को उबा भी सकता है। दूसरा तरीका यह कि फीड में सामग्री थोड़ी ज्यादा या पूर्णतः रखी जाये पर हर प्रविष्टि के साथ विज्ञापन हों। यह तकनीक अभी इतनी परिष्कृत नहीं हुई है हालांकि गूगल एडसेंस के फीड के मैदान में उतरने के बाद माज़रा ज़रूर बदलेगा। एडसेंस की मूल भावना की तर्ज़ पर ही विज्ञापनों को टेक्स्ट या चित्र के रूप में फीड में प्रकाशित कर दिया जायेगा। तकनीक ये सुनिश्चित करेगी कि विज्ञापन का मसौदा जब पाठक फ़ीड पढ़ रहे हों तभी आनन फानन तैयार हो, बजाय इसके कि जब इसका अभिधारण हो रहा हो। सब्सक्रिप्शन आधारित सामग्री के प्रकाशन के लिये ये नये युग का सूत्रपात करेगा।

इसके अलावा भी लोग दिमाग पर ज़ोर लगा रहे हैं। आर.एस.एस फीड किसी भी साइट को बिना वहाँ जाये पढ़ना तो बायें हाथ का खेल बना देता है पर पारस्परिक व्यवहार या बातचीत का तत्व हटा देता है, संवाद दो तरफा नहीं रहता। अक्सर प्रविष्टि के साथ टिप्पणी की कड़ी तो रहती है पर टिप्पणी करनी हो तो अंततः जाना आपको साईट पर पड़ेगा ही। अब लोगों ने फीड में HTML फार्म का समावेश कर संवाद का पुट जोड़ने की कोशिश की है। स्कॉट ने अपनी फीड में यह प्रयोग किया ताकि लोग गुमनाम रहकर भी उनकी किसी भी प्रविष्टि को "टैग" कर सकें। याहू में कार्यरत रस्सेल एक कदम और आगे निकले, हाल ही में अपनी फीड में उन्होंने टिप्पणी करने का नन्हा सा HTML फार्म ही जोड़ दिया।

तकनलाजी के दीवाने आर.एस.एस के और उन्नत प्रयोगों के बारे में भी कयास लगा रहे हैं। जैसे कि इनका ऐसे ऐजेंट के रूप में प्रयोग जो समय समय पर अंतर्जाल से वांछित ताज़ी सामग्री खंगाल कर ला दे। या फिर ऐसे औज़ार के रूप में जिससे आप अपने कैलेंडर, संपर्क पते जैसी जानकारी साझा कर सकें। कल्पना कीजिये कि विभिन्न कंपनियाँ अपने उत्पादों के बारे में नवीनतम जानकारी, मूल्य सूची ईमेल के बजाय फीड से भेजें तो कितनी आसानी हो जाये। या फिर विश्वविद्यालय अपनी पाठ्य सामग्री इस तरह से भेजें। ये बातें बहुत उम्मीदें जगाती हैं। साथ में अनगिनत परेशानियाँ भी जुड़ी हैं, सिक्योरिटी और व्यक्तिगत पसंद संबंधी। क्या फीड को पासवर्ड द्वारा सुरक्षित कर या ईमेल ग्रुप की तरह किसी विशिष्ट समूह लोगों तक ही इसकी पहुँच सुनिश्चित करना मुमकिन है? आजकल के न्यूज़रीडर तो केवल सामग्री को फीड से अभिधारित कर तय प्रारूप में आप दर्शाते हैं। क्या पाठक यह तय कर सकेगा कि फीड में कौन सी जानकारी कितनी आये, कब और किस रूप में आये? क्या वह सामग्री का विश्लेषण कर पायेगा? ऐसे कई अनुत्तरित सवालों का जवाब लोग खोज रहे हैं। और मुझे लगता है कि जवाब जल्द ही आयेंगे?

Tuesday, June 07, 2005

सृजनात्मकता और गुणता नियंत्रण

उत्पाद चाहे कैसा भी हो गुणता यानि क्वालिटी की अपेक्षा तो रहती ही है। भारतीय फिल्मों के बारे में कुछ ऐसा लगता नहीं है। शायद इसलिये कि सफलता के कोई तय फार्मुले नहीं हैं और गुणता नियंत्रण की संकल्पना किसी क्रियेटिव माध्यम में लाना भी दुष्कर है। यह बात भी है कि जब बड़े पैमाने पर कोई फिल्म बनती है तो कुछ न कुछ कमियां तो रह जाना वाजिब है। नायिका नीले रंग की साड़ी पहन कर घर से निकले और बाज़ार में विलेन द्वारा किडनेप किये जाते वक्त साड़ी का रंग पीला हो जाये (ये कथन रंग के ताल्लुक में ही है)। नायक को चोट दायें हाथ में लगे और अगले दृश्य में पट्टी बायें हाथ पर दिखे। यह सब तो हजम करना ही पड़ता है, फिल्मों में कंटिन्युटि ग्लिच तो बड़ी आम बात है। वैसे मैंने यह कहने कि लिये लिखना शुरू किया था कि फिल्म के कुछ दूसरे विभाग भी इस से अछूते नहीं रहते।

बेनेगल की फिल्म सुभाष के संगीत को ही ले लिजिये। मैं रहमान का प्रशंसक हूं पर ईमानदारी से कहें तो उनकी आवाज़ प्लेबैक के लायक नहीं है। यह सच है कि उन्होंने अपने गानों में कई बार अनगढ़ आवाजों का प्रयोग किया है पर हर गाना तो पट्टी रैप नहीं होता न! सबसे बड़ी बात यह है कि उनका हिन्दी उच्चारण काफी खराब है (मुझे मालूम है की यह उनकी मातृभाषा नहीं है, यह बात किसी भी गैर हिन्दी गायक के लिये लागू होगी पर यह भी कहना पड़ता है कि फिर यशोदास, एस.पी.बालसुब्रमन्यम जैसे गायक यह करिश्मा कैसे कर दिखाते थे)। यहीं मुझे एहसास होता है कि काफी तरीकेवार सिनेमा निर्माण करने वाले बेनेगल ने ऐसी एपिक सागा बनाते वक्त संगीत पक्ष पर ध्यान क्यों नहीं दिया। क्या रहमान का कद निर्देशक से भी उँचा हो गया कि वे कह न सके, "अरे रहमान, यह गाना रूपकुमार राठौर से गवा लो"। हो सकता है रहमान रूठ कर बोले हों, "गाना मुझे नहीं तो संगीत ही नहीं", तो कम से कम यह तो बोला जाना चाहिये था कि ऐसा है तो हिन्दी उर्दु की ट्यूशन ले कर आवो, कम से कम "था" को "ता" तो नहीं बोलोगे। अगर रहमान फिर भी अड़े रहें कि रेमो ने "पियार टो हुना हि ता" गाया तो आप क्यों चुप थे तो मेरे ख्याल से बेनेगल यह निर्णय ले सकते थे कि रहमान को काला पानी कहाँ भेजा जाये। जब आत्ममुग्धता सृजनात्मकता पर हावी हो जाये तो गुणवत्ता की वाट तो लगनी ही है।

Monday, June 06, 2005

संदेशों में दकियानूसी

अपना मुल्क भी गजब है। सवा १०० करोड़ लोग उत्पन्न हो गये पर सेक्स पर खुली बात के नाम पर महेश भट्ट के मलिन मन की उपज के सिवा कुछ भी खुला नहीं। भारत किसी अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता में कोई रिकार्ड भले न तोड़ पाया हो पर एड्स के क्षेत्र में सतत उन्नति की राह पर अग्रसर है। सरकारी बजट बनते हैं तो करोड़ो की रकम रोग का फैलाव रोकने और जन जागृति लाने के लिये तय होती है पर न जाने किन उदरों में समा जाती है। जब युवाओं में खुल्लम खुल्ला प्रेम के प्रायोगिक इज़हार की बातें सुनता देखता हुँ तो लगता है कि या तो इन तक संदेश की पहुँच तो है ही नहीं या फिर संवाद का तरीका ही ऐसा है कि कान पर जूं नहीं रेंगती।

गत कुछ सालों तक शहर देहातों तक सरकार कहती थी "एड्सः जानकारी ही बचाव है"। बढ़िया है, जानकारी होनी चाहिये। पर कौन सी जानकारी? "क्यों दद्दा? एड्स से कैसे बचोगे?", "जानकारी से भईया, और कैसे?" गोया जानकारी न हो गयी, एस.पी.जी के कमांडो हो गये। मिर्ज़ा बोले, "अरे मियां! अहमक बातें करते हो। सारा पाठ एक बार में थोड़े ही पढ़ाया जाता है। पहले साल कहा, जानकारी होनी चाहिये। फिर दूसरे साल कहेंगे, थोड़ी और जानकारी होनी चाहिये। जब पाँचेक साल में यह पाठ दोहरा कर बच्चे जान जायेंगे कि भई हाँ, जानकारी होनी चाहिये तब पैर रखेंगे अगले पायदान पर"। सरकारी सोच वाकई ऐसी ही लगती है। आश्चर्य होता है कि जिन एजेंसियों को काम सोंपा जाता है उनकी कैसी समझ है मास कम्यूनिकेशन की। मुद्दे पर सीधे वार करने की बजाय अपनी डफली पर वही पुराना राग। अरे सीधे क्यों नहीं बताते कि भईये अनजान लोगों से सेक्स संबंध रखने से बचो, खास तौर पर जिस्म की मंडियों से परहेज़ रखो। और अगर चमड़ी मोटी है और बाज़ नहीं आ सकते अपनी आदतों से तो काँडोम का सही इस्तमाल करो। अस्पतालों में, होशियार रहो कि "नये डिस्पोजेबल" या अच्छी तरह उबले सिरिंज ही छुएं शरीर को। यदि रोग लग गया है तो दूसरो को संक्रमित करने या बच्चे को जन्म देने की न सोचो।

बहरहाल, पिछले साल से सरकारी भोंपू पर राग बदला है। बढ़े अच्छे और दो टूक बात करने वाले कुछ सीरियलों की बात मैं कर चुका हूँ, यह बात अलग हैं कि अब ये कार्यक्रम प्राईम टाईम से नदारद हैं। निःसंदेह संदेश कुछ स्पष्ट होना शुरु हुये हैं। इसके अलावा गर्भपात और गुप्त रोगों पर भी बात स्पष्ट रूप से रखी जा रही है। जिस दकियानूसी की सेंसर बोर्ड में ज़रूरत है वह सरकारी संदेशों में न ही आये तो अच्छा।

Sunday, June 05, 2005

मुगालते में ऐश है

हम भारतीय तो जन्मजात हिपोक्रिट हैं ही। कथनी और करनी का अंतर न हो तो हमारी पहचान ही विलीन हो जाये। कुछ दिनों पहले जब देह मल्लिका के कॉन्स के पहनावे की बात आयी जिसमें कपड़ा कम और जिस्म ज़्यादा था तो मुझे मल्लिका और ऐश्वर्या कि महत्वाकाक्षांओं में कुछ खास फर्क नहीं नज़र आया। दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय रूपहले पर्दे पर जाने को आशावान हैं। इस राह में जिस्म की खास भूमिका है, बस दोनों अभिनेत्रियों का अप्रोच खासा अलग है। मल्लिका की साफगोई की दाद देनी पड़ेगी। वे जानती हैं और स्वीकार भी करती हैं कि चमड़ी के भरोसे सफलता मिलना तय है। इसके उलट अपनी भोली भाली छवि के अनुरूप ऐश ऐसा दिखाती हैं कि वे काजल की कोठरी में रहकर भी दूध सी सफेद बाहर निकलेंगी। "मैं सेक्स सीन नहीं दूँगी, किस नहीं नहीं।" देसी फिल्मों में उन्होंने कोई तरीका तो नहीं छोड़ा जिस से उनके शरीर कि रचना की गणना न की जा सके। ज़्यादा दूर क्या जाना, हाल का लक्स का नया विज्ञापन देखें, छुईमुई ऐश्वर्या न जाने कहाँ कहाँ गोदना गुदवा रही हैं वो भी इतने अशोभनीय (ओह माफ कीजियेगा, नयी भाषा में इसे सेक्सी कहा जाता है, है न!) तरीके से कि...। इससे तो मल्लिका जैसी अभिनेत्रियाँ ही भली, चमड़ी बेच रही हैं तो किसी मुगालते में नहीं हैं और न ही छूईमुई और बुद्धिमान बने रहने का दिखावा करती हैं। मर्द को लुभाने वाली चीज़ स्त्री के मस्तिष्क के काफी नीचे बसती हैं यह बात तो ऐश भी जानती हैं। पर मुगालते पालना भी कोई बुरी बात नहीं। जब भविष्य में भारतीय पुरुष उनकी पंद्रह मिनट की भूमिका वाली जगमोहन मूँदड़ा निर्मित हॉलीवुड की कोई फिल्म जब देखेंगे तो ऐश्वर्या के शरीर और "अभिनय क्षमता" को ज्यादा बेहतर सराह पायेंगे।

सप्ताह का किस्सा


चापलूसी की हद