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Monday, January 26, 2004

अभिव्यक्तिः एक नया हिंदी चिट्ठा

शैल का हिंदी चिट्ठा अभिव्यक्ति इस श्रृंखला में एक और कड़ी है। लख लख बधाईयाँ शैल! हिंदी चिट्ठों की जमात में आपका स्वागत है।

Friday, January 23, 2004

प्रतिक्रिया पर एक प्रतिक्रिया

नुक्ता चीनी के एक पाठक शैल ने मेरे चिठ्ठे "राजनीतिक योग्यता क्या हो" पर प्रतिक्रिया लिखी हैः

बीजेपी को सोनिया से क्या समस्या है ये तो वो ही बता सकते हैं,लेकिन मुझे जो बात खटकती है वो है काँग्रेस की कुनबापरस्ती। आखिर ये लोग नेतृत्व के विचारों का प्रचार करने के बजाय इस बात पर क्यों बल देते रहते हैं कि सोनिया "गाँधी" हैं इसलिये हमें उनको वोट देना चाहिये।

शैल, अगर आप मुझ पर कांग्रेसी होने का शक न करें तो मैं ये कहुंगा कि वंशवाद का इल्ज़ाम सिर्फ गांधी घराने पर लगाना शायद पूर्णतः उचित नहीं है। क्या सुमित्रा महाजन अपने पुत्र को विधानसभा टिकट न मिलने पर मुँह फुलाए नहीं घूमतीं फिर रहीं? क्या राजस्थान की मुख्यमंत्री सिंधिया घराने की नहीं हैं? क्या फार्रुख अब्दुल्ला के पुत्र का राजनीतिक जीवन वंशवाद की उपज नहीं? अजीत सिंह व ओम प्रकाश चौटाला की राजनैतिक नींव किसने रखी? दरअसल हर पार्टी किसी न किसी करिश्माई व्यक्तित्व की तलाश में है जिसका हाथ थाम कर चुनावी वैतरणी पार हो जाए।

हाँ, कांग्रेस में बगैर गांधी उपनाम के करिश्माई बन पाना ज़रा टेड़ी खीर है। माधवराव सिंधिया व राजेश पायलट दोनों ऐसे व्यक्तित्व वाले थे पर अब वो हैं नहीं, सोनिया के नाम पर आम राय कभी थी ही नहीं। मनमोहन का व्यक्तित्व सौम्य हो पर मनमोहनी नहीं है, बचे कौन? नरसिंह राव, प्रणव मुखर्जी, नारायण दत्त तिवारी या मोतीलाल वोरा तो अब अकेले रथ खींचने के लिए ये सभी बहुत बुढ़ा चुके हैं। तिस पर इनकी कोई बहुत प्रभावी जनाधार भी नहीं है। जाहिर है निगाहें आ टिकी हैं प्रियंका और राहुल पर। कांग्रेसी मजबूरी का नाम...गांधी।

Thursday, January 22, 2004

नुक्ता चीनी का फीड

ब्लॉगर के सौजन्य से नुक्ता चीनी का एटम फीड अब उपलब्ध है। पाठक अगर नुक्ता चीनी नियमित रूप से अपने एग्रीगेटर के माध्यम से पढ़ना चाहें तो ये फीड काम की चीज़ है। बाक़ी की नहीं जानता पर ब्लॉगलाइन्स पर ये पढ़ा जा सकता है।

राजनीतिक योग्यता क्या हो?

सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर नया दल बना देने वाले शरद पवार उनसे राजनीतिक गठजोड़ के लिए तैयार हैं। जो मौका परस्ती न करें वो नेता भला क्या नेता! भाजपा भी इस मुद्दे को गरमाने के लिए तैयार है। कुछ ही दिनों पहले अटलजी भारतीय मूल के बॉबी जिंदल के लूसियाना के गवर्नर बनने की संभावना से बेहद उत्साहित थे, ग़र बॉबी जीत जाते तो शायद प्रवासी भारतीयों के बढ़ते कद पर वाजपेयी एक कविता लिख डालते। किसी भारतीय को विदेशी राजनैतिक पायदान पर चढ़ते देखना सुखद लगता है, भले ही वह खुद को भारतीय न मानता हो, पर किसी विदेशी का भारत में वैसा ही करना राजनैतिक नेत्रों में खटकता है। चाहे वो एक भारतीय से विवाहित स्त्री क्यों न हो। भले ही वह एक पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा से बेहतर हिन्दी बोल सकतीं हों।

दरअसल कोई भी ऐसी योग्यता जिस के आधार आप और मैं नौकरियों, परीक्षाओं में चुने जाते हैं राजनीति में चुने जाने का आधार नहीं बन सकतीं चाहे वह शैक्षणिक योग्यता हो, आयु सीमा या कार्य अनुभव। नतीजन हम अक्सर चुन लाते है निपट गँवार, अपराधी पृष्ठभूमि के लोग या ऐसे जिनके पांव कब्र में लटके हों। और चुनने की भी क्या कही! गठजोड़ की राजनीति के युग में आप भले ही सर्वश्रेष्ठ को वोट दें, इसका कोई भरोसा नहीं कि आपके ठुकराए दलों की सांठगांठ से सरकार नहीं बन जाएगी।

मैं कोई सोनिया भक्त नहीं, पर उनके विरोध के मुद्दे पर मुझे एतराज़ है। हालांकि सोनिया जैसे नए लोग हों या अटलजी जैसे अति अनुभवी, नुकसान दोनों को चुनने में है। जहां सोनिया जैसे नए रंगरुट नेताओं के उच्च पदों के आसीन होने से अफसरशाहों की चांदी हो जाती है और किचन कैबिनेट के मेम्बरान परोक्ष रूप से सरकार चलाने लगतें हैं, वहीं ज्यादा अनुभवी सूटकेस राजनीति में लिप्त हो जाते हैं। मेरा मानना है हमें कुछ बीच का रास्ता अख्तियार करना चाहिए।

Tuesday, January 20, 2004

अटली चेहरा सामने आए, असली सुरत छुपी रहे..

वीर सांघवी का कहना है (काफी हद तक मेरे विचारों से मिलता है)

"वाजपेयी का कद हमें भाजपा की असली सूरत देखने से रोक देता है। समीकरण से उन्हें निकाल तो हमें ऐसे लोगों का दल मिलेगा जिन्हें सामुहिक हत्याओं से गिला नहीं, जो साधुओं से राजनीतिक परामर्श लेते हैं और जिन्होंने चुनावी रणनीतियां बनाने की जिम्मेवारी टेंटवालों और बिचौलियों को सौंप रखी है।"

मेरा शुरू से ये मानना है कि अटल वाकई भाजपा का मुखौटा मात्र हैं (यह सचाई कहने का साहस गोविंदाचार्य में था जिस कारण से वे आज हाशिए पर हैं)। कमलेश्वर ने लिखा है,

"लोगों के मन में यह आशंका है कि चुनावों के बाद आडवाणी और मुरली जोशी अपना अटल वाला मुखौटा उतारकर हिंदुत्ववादी मोदी और तोगड़िया की शरण ले लेंगें।"
मेरा मन कहता है ये आशंका सच होने वाली है।

Sunday, January 18, 2004

बस मानसिकता सरकारी न हो

बड़ी खुशी होती है जानकर कि जिस जावा का प्रयोग मेरे जैसे प्रोग्रामर वेब व मोबाईल एप्पलीकेशन्शस बनाने के लिए करते हैं वही मंगल ग्रह पर स्पिरिट नामक रोवर को भी दौड़ा रहा है। वैसे सारा श्रेय नासा को ही जाना चाहिये, जैसा की गोसलिंग ने कहा, "नासा में लोग वो कर रहें हैं जो आम आदमी के लिए फंतासी जैसा है, ऐसी सरकारी संस्था का मिलना मुश्किल है जहां लोग अपने सपने सच कर पाते हों"। क्या भारत में कोई सुन रहा है?