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Monday, December 20, 2004

मेहमान का चिट्ठाः नितिन

नुक्ताचीनी ने मेज़बानी की तीसरी अनुगूँज की, और विषय ऐसा था जिस पर एक अंग्रेज़ी ब्लॉगर लगातार लिखते रहे हैं, "द एकार्न" के रचनाकार, सिंगापुर में बसे, नितिन पई। पेशे से दूरसंचार इंजीनियर नितिन एक प्रखर व मौलिक चिट्ठाकार हैं। अपने चिट्ठे में वे दक्षिण‍ एशियाई राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर खरी खरी लिखतें हैं, इस्लामिक व एटमी ताकत़ वाले राष्टृ खासतौर पर पाकिस्तान पर इनकी पैनी नज़र रहती है। मेरी गुज़ारिश पर नितिन ने अनुगूँज में शिरकत की जिसके लिए उनका धन्यवाद!

Akshargram Anugunjजिहादी आतंक ने जम्मू-कश्मीर राज्य की आर्थिक व्यवस्ता को गम्भीर हानि पहुँचायी है। पर्यटन और ग्रामोद्योग इस राज्य के प्रमुख व्यव्साय रहे हैं, लेकिन आतंकवादियों ने इन्हीं व्यवसायों को खास रूप से अपना निशाना बनाया है। कारण साफ है - आम जनता की उम्मीद जब तब बुझी रहे तब तक आतंकवादी दलों में शामिल होनेवालों कि कमी नही रहेगी। आतंकवाद के बीते दस-बारह सालों ने दो पीढ़ीयों की शिक्षा चौपट की है, जिसके कारण राज्य के आर्थिक सुधार की राहों में काफी मुश्किलें पैदा हो गयीं है।

इस समस्या का पूरा हल आसान नही है। सरकार की आर्थिक मदद तो ज़रूरी है ही पर आतंक का पूर्ण रूप से रुकना उस से भी ज़्यादा ज़रूरी है। यह दक्षिण अफ़्रीका की 'सत्य और समाधान#' समिति ने कर दिखाया है। अगर आम आतंकवादी अपनी हिंसा को पूरी तरह से त्याग कर अपने किये अपराधों को मान ले तो सरकार उन्हें माफ़ कर सकती है। इसके बाद पहला कदम है समाज में उनकी वापसी और दूसरा कदम, आर्थिक अनुकलन।

#नितिन मानते हैं कि कश्मीर समस्या का हल दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के अपराधियों के साथ न्यायोचित व्यवहार के लिए स्थापित सत्य और समाधान कमीशन की तर्ज पर किया जा सकता है।

Sunday, December 19, 2004

आतंक से मुख्यधारा की राह क्या हो?

Akshargram Anugunj: Third Eventपुर्नवास का प्रश्न केवल हथियार डाल चुके आतंकवादियों के लिए ही नहीं वरन् समाज के पूर्वाग्रहों के शिकार अनेक वर्गों के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक है, चाहे वो परित्यक्त या व्यभिचार से पीड़ित महिलाएँ हों, किन्नर, अपंग, सजा भुगत चुके अपराधी हों, या एड्स जैसी कलंकित बीमारियों के पीड़ित। इन्हें मुख्यधारा में शामिल करने, अपने साथ समाज में उठने बैठने देने के विचार मात्र से ही हमारे पूर्वाग्रह हमें सिहरा देते हैं। हमें इनमें निहित कथित बुराईयों से संक्रमण का डर सताता है जबकि हममें से कई ऐसे हैं जो स्वभावगत रूप किसी न किसी समय व्यभिचारी, अपंग या किन्नर बन जाते हैं पर समाज के हंटर से बचे रहते हैं।

आतंकवाद का मसला वैसे भी बड़ा संवदनशील मुद्दा है, सरकार के लिए जो आतंकवादी है वो किसी वर्ग के लिए आज़ादी के सिपाही हो सकते हैं। राज्यों के विलय की पटेल नीति की कमी या हो या राजनयिक स्तर पर भारत का अंर्तराष्ट्रीय मंचों पर कमज़ोर प्रर्दशन या राजनेताओं के स्वार्थ का समर, कश्मीर का स्वर्ग सेना के हवाले करके समाधान की राहें तो बरसों पहले ही बंद कर दी गईं। भारत में सेना का इस्तेमाल भी बड़ा हास्यास्पद है, किसी भी राज्य के पुलिस और प्रशासनिक ढांचा इतना बलहीन है कि अपने माद्दे पर किसी भी आपदा से निबटने की कुव्वत नहीं, ज़रा भी परेशानी में फंसे नहीं कि केन्द्र से सेना भेजने का अनुरोध करने में पलक झपकने की भी देर नहीं लगती। आतंकवाद जैसे मसलों पर सेना के निबटने का तरीका ज़रा अलाहदा ही रहता है, इनके लिए दिल से ज्यादा दिमाग से लिए निर्णय ज़्यादा मायने रखते हैं। ऐसे में गेहूँ के साथ घुन का पिस जाना कोई अस्वाभाविक बात नहीं जिन्हें मानवाधिकार संगठन ज़्यादतियाँ कह कर पुकारती रही हैं।

मेरे विचार से सुबह के भूलों का विस्थापन ज़रूरी है क्योंकि यह आतंक के साये तले रह रही जनता में विश्वास जगाता है। कशमीर के लिए खास "पैकेज" राजनैतिक रूप से भी हमारा पक्ष दुनिया के सामने पेश कर सकते हैं। पर इन सभी से ज़रूरी है समस्या के निदान की ओर तेज राजनयिक कदमों की। यहीं गाड़ी बरसों से अटकी पड़ी है। हर बार दोनों तरफ के नौकरशाह कुछ न कुछ मसला उठा कर मुँह फुला कर बैठ जाते हैं। देशभक्ति ठीक है पर हमें यह सत्य भी स्वीकारना चाहिए कि कश्मीर की २२२२३६ वर्ग की.मी. ज़मीन में से पाकिस्तान लगभग ३५फीसदी (७८००० कि.मी) पर काबिज़ है। १९६३ के एक विवादास्पद समझौते के आधार पर पाकिस्तान लगभग ५१८० कि.मी. ज़मीन चीन के सुपुर्द कर चुका है। हमारे देश के अलावा सारी दुनिया में भारत के नक्शे में से पाकिस्तान के कब्ज़े वाली ज़मीन निकाल कर दिखाई जाती है। इस परोक्ष युद्ध में हम करोड़ो की रकम ओर बहुमूल्य जानें झोंक चुके हैं। मैं नहीं कहता ये कोई तुरत फुरत हल हो जाने वाला मसला है, पर हल की ओर कुछ कदम तो बढ़ें। बरसों से हम राजनीतिक स्टेलमेट के शिकार हैं।

छोटे मुँह बड़ी बात, पर रास्ते तो कई दिखते हैं, पहलाः पाकिस्तान को मटियामेट करने का ईरादा बना कर उस पर हमला बोल दें, परमाणु शक्तियों के बीच का यह युद्ध दुनिया और हमें किस मुक़ाम तक ले जाएगा इसकी भविष्यवाणी तो नेस्त्रादम भी शायद ही कर पायें। इसमें ग़र विजयी भी हुए तो टूटी आर्थिक कमर पर विश्व भर में पाकिस्तान के खैख्वाहों, जिसमें दुनिया का दरोगा भी शुमार है, की लात सहते हुए हम कभी उबर पायेंगे इस बात पर शंका होती है। एक और रूखः चीन से ज़मीन वापस ले कर वर्तमान नियंत्रण रेखा को सीमा रेखा का दर्जा दें दे, सबसे व्यावहारिक हल, या तीसराः संयुक्त राष्टृ को सर्वौच्च और निष्पक्ष मान कर (दुनिया के दरोगा के रहते इस बात पर यकीन करना ज़रा मुश्किल ही है) उसके और अन्य तटस्थ देशों की निगरानी में जनमत संग्रह हो, पर पूर्ण कश्मीर के लिए, भारत पाकिस्तान और चीन की ज़मीन मिला कर। अगर फैसला हमारी तरफ हो तो निगरानी रखने वाले देशों, संगठनों से लिखित गारंटी लें की पाकिस्तान आतंक के प्रायोजन से तौबा करे या सैंन्कशन्स झेल कर आर्थिक रूप से मिट जाने को तैयार रहे। भारत के पत्रकारों की हाल की पाकिस्तान यात्रा से सपष्ट है कि पाकिस्तान के कब्ज़े वाला आज़ाद कश्मीर भी कोई आज़ाद नहीं है। जे.के.एल.एफ जैसे संगठन न पाकिस्तान के साथ जाना चाहते हैं न भारत के,कश्मीर के ज्याद़ातर बाशिंदे आतंक से मुक्ति और खुशहाली वापस चाहते हैं, पाकिस्तान से उनका कोई मोह नहीं।

अब यह तो एक दिवास्वप्न ही होगा कि हम यह मानें कि कश्मीर की समस्या तो सुलझती रहेगी, पूर्व आतंकियों को पुर्नस्थापन का लॉलीपॉप देने भर से आतंक का वीभत्स खेल स्वतः ही बंद हो जाएगा। सीमा पार आतंक से समस्या उपजी, पर इसे बंद कराने के लिए वैश्विक जनमत बनाने तक में हमारा राजनैतिक नेतृत्व नाकामयाब रहा है। सारा मामला राजनयिक बयानबाज़ी के पाश में फँस गया है। राजनीतिज्ञ पाकिस्तान के खिलाफ एक ओर तो ज़हर उगल कर लोगों को बरगलाते रहें और दूसरी ओर रेल, बस मार्ग खोलने और क्रिकेट खेलने के दोगले कदम भी उठाते रहें। दुर्भाग्य की बात है कि रीढ़ विहीन राजनैतिक पाटो के बीच में पिसना ही इस राज्य की नियती बन चुकी है। कोई ऐसा नेतृत्व नहीं जो ये ठान ले की हल एक निर्धारित समय सीमा में निकालना ही है। नतीजतन, कैंसर का ईलाज़ नीम हकीम कर रहे हैं और रोग बढ़ा जा रहा है। डर कि बात यह है कि कहीं सही इलाज के अभाव में यह कैंसर कश्मीर को ही निगल न ले।

Saturday, December 11, 2004

भारतीय ब्लॉग मेला: ३७वां संस्करण

भारतीय ब्लॉग मेला में आपका स्वागत है। प्रकाशन में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ और बिना लाग लपेट शुरु करता हूँ यह आयोजन:

  • अतुल सी.एन.एन की एक ख़बर, जिसमें अमेरिकी पयर्टकों को युरोप में परेशानी से बचाने वाले कैनेडियन प्रतीक चिन्हों वाले लिबासों के प्रचलन का ज़िक्र था, का हवाला देते हुए पर्यटन के पहलुओं पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी कर रहे हैं।
  • साइकिल सवार साधनहीन बुढऊ की पीक के छींटों से व्यथित अनूप ने ठीकरा थूककर चाटने के हमारे राष्ट्रीय चरित्र पर फोड़ डाला
    कुछ विद्वानों का मत है कि 'थूककर चाटना' वैज्ञानिक प्रगति का परिचायक है। नैतिकता और चरित्र जैसी संक्रामक बीमारियों के डर से लोग थूककर चाटने से डरते थे। अब वैज्ञानिक प्रगति के कारण इन संक्रामक बीमारियों पर काबू पाना संभव हो गया है।
  • हिंदी के कदम बढ़ते हुए आ पहुँचे मोज़िला फ़ायरफ़ाक्स 1.0 ब्राउज़र और ई-मेल क्लाएंट मोजिला थंडरबर्ड के हिन्दी संस्करण तक, बता रहे हैं रवि
  • नीलेश अपने चिट्ठे में बात कर रहे हैं, कैप्चास के विषय में जिनकी मदद से आप अपने ब्लॉग कि टिप्पणीयों में शरीर के अंग के विशालिकरण के तरीकों और वियाग्रा कि दुकानों कि फेहरिस्त से बच सकते हैं। हालाँकि वे बताते हैं
    स्पैमर्स ने कैप्चास की भी तोड़ निकाल ली है। किसी ने ऐसे सॉफ्टवेयर रोबो का ईजाद किया है जो किसी पंजीकरण फॉर्म में कैप्चा परीक्षण से पाला पड़ते ही उसे किसी पोर्न जालस्थल पर प्रेषित कर देगा जहाँ आगंतुकों को कहा जाएगा कि और पोर्नोग्राफी देखनी है तो इस टेस्ट को पास किजीए। उनके दिए जवाब का रोबो इस्तेमाल करेगा ईमेल पंजीकरण फॉर्म पर।
  • विजय ठाकुर ने प्रस्तुत की बाबा नागार्जुन की मैथिली कविता का हिन्दी रुपांतर, हालाँकि अनुवाद ज़रा क्लिष्ट हो गया है।
  • जितेन्द्र शर्मा सूडान में तेल और जातियता से उपजी दोगली घरेलू और अंर्तराष्ट्रीय राजनीति के घालमेल और वहाँ जारी संघर्ष से आम जनता की तकलीफों का ज़िक्र कर रहे हैं अपने चिट्ठे में। एक अन्य चिट्ठे में वे सामाजिक और आर्थिक संकट के पाटों के बीच फंसे नाईजीरिया के राष्ट्रपति के विदेश यात्राओं पर हो रही चर्चाओं के दोनों पहलू पेश कर रहे हैं।
  • अंततः आशीष का चिट्ठा जहाँ वे यातायात की एक ख़बर का भारतीय परिप्रेक्ष्य में ज़िक्र कहते हुए कहते हैं कि पूर्वनिर्धारित यातायात के नियमों को सीखना भर काफी नहीं है क्योंकि समय और परिस्थिति के अनुसार बदलाव न होने के कारण इनका कारगर होना मुश्किल है।

माफी चाहता हूँ, कुछ नामित चिट्ठे व्यक्तिगत थे जो मेले के नियमानुसार शामिल नहीं किए जा सके। सभी प्रतिभागियों का शुक्रिया। धन्यवाद शांति का भी मुझे आतिथ्य का मौका देने के लिए। अगले मेले के मेज़बान हैं याज़ाद

हिन्दी ब्लॉगरोल

मुझे याद आता है कि जितेन्द्र ने संभवतः सबसे पहले यह कहा था कि ब्लॉग जगत से सुर्खियों की तरह वे हिन्दी ब्लॉगरोल जैसा भी कुछ चाहते हैं। मंतव्य यह था कि हर चिट्ठाकार और उनके पाठकों को नए चिट्ठों का पता उसी ब्लॉग से मिल जाए और हर बार टेम्प्लेट से छेड़छाड़ की माथापच्ची भी खत्म हो। तो पेश है हिन्दी ब्लॉगरोल स्क्रिप्ट इस्तेमाल का तरीका वही, बस निम्न HTML अपने ब्लॉग टेम्प्लेट पर चस्पा कर लें।

<script language="javascript" src="http://www.myjavaserver.com/~hindi/BlogRoll.jsp" type="text/javascript"></script>

नमूना मेरे ब्लॉग पर ही मौजूद है। आप से एक मदद की गुजारिश है, किसी नए हिन्दी चिट्ठे का पता चलते ही मुझे या चिट्ठाकार ग्रुप पर जरूर इतल्ला कर दें जिससे यह सूची ताज़ी रहे। आपकी सूचना से न केवल यह बल्कि डीमॉज़ निर्देशिका, हिन्दी चिट्ठाकार वेबरिंग, ब्लॉगडिग्गर की फीड (उस पर निर्भर चिट्ठा विश्व) और चिट्ठाकार ग्रुप्स सभी का भला होगा।

Saturday, December 04, 2004

भारतीय ब्लॉग मेला: आमंत्रण

हर्ष का विषय है कि भारतीय ब्लॉग मेला पहली बार किसी अन्य भाषा के चिट्ठे पर अवतरित हो रहा है।Bharteeya Blog Mela 37th Edition यह नाम भी बड़ा उपयुक्त है, हालाँकि कंक्रीट के जंगलों में मेले अब होते नहीं पर मेले का नाम ज़ेहन में आते ही मनोरंजन ध्यान आता है, एक ऐसा आयोजन जहाँ विभिन्न विषयों पर लिखने वाले, मुख़्तलिफ़ पेशे और अलाहदा परिवेश से जुड़े चिट्ठाकारों कि तरह ही विविधता होती है, गोया कि हर किसी के लिए कुछ न कुछ होता है।

तो मित्रों, ३७वें भारतीय ब्लॉग मेले में नुक्ताचीनी के आतिथ्य में आपकी प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं। प्रविष्टियाँ दिसंबर ३ से १०, २००४ के बीच लिखे चिट्ठों पर आधारित हों। अपनी प्रविष्टि मुझे debashish at gmail dot com ईमेल कर सकते हैं, बेहतर हो इसी चिट्ठे की टिप्पणी (कॉमेंट) के रूप में प्रेषित कर दें। प्रविष्टि भेजने की अंतिम तिथि है दिसंबर १०, २००४.

शेष शर्तें हमेशा जैसी ही :

  • चिट्ठे भारतीयों द्वारा भारतीय विषयों पर लिखे गए हों।
  • कृपया चिट्ठे की स्थाई कड़ी (पर्मालिंक) भेजें। स्थाई कड़ी के अभाव में चिट्ठे का नाम तथा तिथि का ज़िक्र करें।
  • आप अपने या/तथा दूसरों के चिट्ठे प्रस्तावित कर सकते हैं।
  • चिट्ठे व्यक्तिगत न हों।

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