पहले प्यार की बात चल पड़ी तो मुझे भी पहला प्यार याद आ गया। परिणती तक भले न पहुँचा हो पर मन में किसी कोने में यादों की महक तो बाक़ी है। किस्सा चुंकि नितांत निजी है इसलिए सुना कर बोर नहीं करूँगा। पर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ उन दिनों लिखा एक गीत। कॉलेज के समय तो पूरा जीवन ही मेलोड्रामा से लबरेज़ रहता है, लिहाज़ा यह गीत भी काफी हद तक फ़िल्मी है। विनयजी बता पायेंगे कि मीटर ठीक ठाक है या नहीं। उन दिनों इस गीत के सस्वर पाठ करने की मेरे मित्र बड़ी गुजारिश करते थे खास तौर पर वो जिन्हें इश्क का नया नया रोग लगा था। तो प्रस्तुत है यह गीत "मित्र मान लो"।
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
याद आता है समां वो जब हुआ था रुबरु,
दिल ने तभी था चाहा कि हो दोस्ती शुरु,
बुज़दिल था मैं जो कह न पाया, यही मान लो,
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
कितने किये इशारे पर रही तू बेखब़र,
थे अरमां अपने कबसे बने तू हमसफ़र,
आसां न रहा लिखना प्रेमपत्र जान लो,
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
तेरे सलोने रूप में खोया हुँ मैं सदा,
उन्मुक्त सी हँसी तेरी जाती है गुदगुदा,
रह न पाऊँगा तेरे बिन इतना जान लो,
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
चेहरा तेरा निर्दोष है मासूमियत भरा,
हिरणी सी आँखों में हो जैसे भरी सुरा,
अनुराग मेरा तुमसे है पवित्र जान लो।
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
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