उज्जैन में सिंहस्थ की खबरों में बड़ा अजीब विरोधाभास नजर आता है। भई, बचपन से हम को तो यही सिखाया-बताया गया है कि साधु वैराग का दूसरा नाम होते हैं; मोह-माया, मानवीय कमजोरियों, वर्जनाओं से परे, गुणीजन होते हैं। हो सकता है कि कलियुग की माया हो, वरना मुझे तो ऐसे कुछ संकेत दिखे नहीं। खबरों पर सरसरी नजर दौड़ाएँ तो पता चलेगा कि फलां साधु करोड़ों का चैक भुनाने बैंक पहुँचे, एक आगजनी में साधुओं के टेंट में लाखों के नौट सुलगते देखे गये, आगजनी से क्षुब्ध साधुओं ने कलेक्टर पर कीचड़ उछाल दी और अधिकारियों से हाथापाई की।
कुल मिलाकर मुझे तो सर्वत्र यही दिखता है कि इस सर्वधर्म समभाव वाले देश में, जहाँ कहने को तो राज्य का कोई मज़हब नहीं है (the state has no religion), धर्म के नाम पर आप समाज की माँ-भैन कर सकतें हैं, कोई माई का लाल चूँ-चपड़ नहीं कर सकता। अगर आप नंगे घूमें तो समाज पागल कह कर आप पर पत्थर बरसायेगा और ग़र आप एक नागा साधु हैं तो समाज की औरतें अपने पतियों की उपस्थिती में आपका पैर धो कर पियेंगी। ऊपर उल्लेखित अगर एक भी खबर सच्ची है तो मैं तो ये मानुंगा कि ये *ले साधु नहीं, निरे कपटी और ढोंगी हैं, सोने-चांदी के जेवर चमकाने के बहाने ठगी करने वाले लोगों से भी अधम हैं ये लोग। पर समाज है कि आंखे मूंदे पड़ा है। तोगड़िया बोलते हैं, "अटल जी हमारे मामले में न बोलें, अयोध्या हो जाने दीजीए फिर ३०,००० अन्य मस्जिदों की बारी है।" मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री ताल ठोंक कर कहतीं हैं, "हाँ, मैं संघ परिवार के साथ मिलकर सरकार चला रही हूँ।" उधर भाजपा कहती है मुसलमानों का पार्टी में विश्वास बढ़ता जा रहा है।
कैसा धर्म-निरपेक्ष राज्य है यह? रहीम आज होते तो जाने क्या सोचते!
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