डेनियल ने एक अनोखे वाकये का उल्लेख किया है जब भिखारियों ने दान किया जा रहा खाना यह कह कर ठुकरा दिया कि यह खाना गर्मियों के लिए उपयुक्त नहीं है। कारण जो भी हो, डेनियल का यह कहना काफी सही है कि दान के सहारे जीवनयापन करने वाले अब इससे इतने इतराए हुए हैं कि अब भीख भी उन्हें मन मुताबिक चाहिए। जैसा डेनियल ने कहा, ये लोग भूखे नहीं वरन आलसी और लालची लोग हैं।
मेरे कार्यस्थल पर आते और लौटते समय मुझे बरसों से एक उम्रदराज पर खासा हट्टा कट्टा भिखारी दिखता है। उसके एक हाथ में कुष्ठ रोग का कुछ असर है। अगर मैं और वह एक जैसी वेष भूषा में साथ खड़े हो जावें तो मैं शर्तिया कह सकता हूँ कि कमजोर काया के आधार पर भीख मुझे ही मिलेगी। बहरहाल यह जनाब बोलते कुछ नहीं, बस बाजू में आकर हाथ जोड़कर खड़े हो जाएँगे आपको निहारते रहेंगे। शुरूआत मे मैंने कुछ पैसे दिये भी। पर हर रोज आप उसी व्यक्ति को कैसे जरूरतमंद मान सकते हैं। इस देश में दिक्कत यह है कि कुष्ट जैसे रोग, शारीरिक अयोग्यता के आधार लोग आपसे इतनी हिकारत से पेश आते हैं कि आप मुख्यधारा में आकर अपनी रोजी रोटी कमा नहीं सकते, छोटे शहरों में परिवार में खुशी के मौकों पर और मुम्बई जैसे शहर में जब किन्नर जबरिया पैसे मांगते हैं तो मन में कई बार ये ख्याल आता है कि वाकई ये लोग इस तरह पेट ना भरें तो समाज कौन सा इन्हें कोई रोजगार मुहैया करा देगा।
वक्त के साथ ये मजबूरी आदत बन जाती है। भीख मांगना पेशा और अधिकार बन जाता है। सरकारी वितरण प्रणाली में इतने छेद हैं कि सारा अनाज चूहे और अफसर खा जाते हैं, सस्ता अनाज गरीब और जरुरतमंदों तक पहुँचता नहीं। भूखे की भूख बनी रहती है, टैक्स चोरी से पनपते धनाढ्य दान दे कर फील गुड करते हैं।
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