- तैयब ने मॉडर्न आर्ट की नई भाषा रची है। उनका रंगों का "सीधा और तीक्ष्ण" प्रयोग उनके युग के चित्रकारों के हिसाब से अनूठा है।
- तैयब का तरीका नायाब है, तिस पर महिशासुर का विषय जीवन और आशा की भावना जगाता है।
गौरतलब है कि तैयब कि पिछली एक पेंटिंग जो "काली" देवी पर बनी थी १ करोड़ में बिकी थी। मुझे नहीं मालूम कि ये बनाने और खरीदने वाले पागल है या नहीं पर जो बात साफ साफ समझ आती है वह यह कि पैसे का यह लेनदेन कोई सीधी सच्ची कहानी तो नहीं है। खरीदने की "एन.आर.आई शक्ति" सारे रिकार्ड तोड़ रही है, लोग अपना कलेक्शन बना कर शेखी बघारने के लिये कूछ भी कीमत दे रहे हैं कचरा कला के लिये। बिलाशक कंटेम्पररी आर्ट पर खामखां का हाईप बना रखा है मीडिया ने। ग्रामीण हस्तकला कलाकारों की कला की नकल करने वाले लोगों के वारे न्यारे हैं और असली कलाकार दो जून की रोटी के लिये तरस रहे हैं।
खैर, जब तक अंधेरा कायम है रोटी सेंकतें रहेंगे तैयब और उनकी बेशर्म जमात।
[उत्तरकथाः बड़ा अजब संयोग है, मैंने यह चिट्ठा १ अक्टूबर को लिखा पर प्रेषित नहीं कर पाया, आज देखता हूँ कि तैयब की यह कृति टाईम्स और एक्सप्रेस में भी चर्चा का सबब बनी है। लगता है मेरे विचार संप्रेषित भी हो रहे हैं ;) बहरहाल इससे मुझे जो बात पता चली वह यह है कि इन चित्रों के इतने हाईप्ड कीमत पर बिकने पर भी इनके बनाने वालों को कोई रॉयल्टी नहीं मिलती। अब शायद इस लेख का आखिरी वक्तव्य मुझे वापस ले लेना चाहिये!]
टैगः तैयब मेहता, महिशासुर, मॉडर्न आर्ट, कंटेम्पररी आर्ट
1 comment:
आर्ट की दुनिया से रेखा (पत्नी) का भी नाता रहा है.(वह आर्ट ही पढ़ाती हैं)
दरअसल, ये मार्केट है. अगर आपमें संभावनाएं देखते हैं, तो बाजार वाले आपके नाम का इस्तेमाल कर कचरा भी बेच देते हैं.
आपने सही कहा- एक बड़ा कलाकार मित्र अपनी कलाकारी के लिए अपने पांच साल के पुत्र को रंग की बाल्टियाँ पकड़ा देता है. वह कैनवस पर फेंकता है- उल्टे सीधे.
उसकी ये कृतियाँ हजारों लाखों रुपयों में बिकती हैं.
वह फ्रांस में प्रदर्शनी करने वाला है इस साल!
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