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Monday, June 06, 2005

संदेशों में दकियानूसी

अपना मुल्क भी गजब है। सवा १०० करोड़ लोग उत्पन्न हो गये पर सेक्स पर खुली बात के नाम पर महेश भट्ट के मलिन मन की उपज के सिवा कुछ भी खुला नहीं। भारत किसी अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता में कोई रिकार्ड भले न तोड़ पाया हो पर एड्स के क्षेत्र में सतत उन्नति की राह पर अग्रसर है। सरकारी बजट बनते हैं तो करोड़ो की रकम रोग का फैलाव रोकने और जन जागृति लाने के लिये तय होती है पर न जाने किन उदरों में समा जाती है। जब युवाओं में खुल्लम खुल्ला प्रेम के प्रायोगिक इज़हार की बातें सुनता देखता हुँ तो लगता है कि या तो इन तक संदेश की पहुँच तो है ही नहीं या फिर संवाद का तरीका ही ऐसा है कि कान पर जूं नहीं रेंगती।

गत कुछ सालों तक शहर देहातों तक सरकार कहती थी "एड्सः जानकारी ही बचाव है"। बढ़िया है, जानकारी होनी चाहिये। पर कौन सी जानकारी? "क्यों दद्दा? एड्स से कैसे बचोगे?", "जानकारी से भईया, और कैसे?" गोया जानकारी न हो गयी, एस.पी.जी के कमांडो हो गये। मिर्ज़ा बोले, "अरे मियां! अहमक बातें करते हो। सारा पाठ एक बार में थोड़े ही पढ़ाया जाता है। पहले साल कहा, जानकारी होनी चाहिये। फिर दूसरे साल कहेंगे, थोड़ी और जानकारी होनी चाहिये। जब पाँचेक साल में यह पाठ दोहरा कर बच्चे जान जायेंगे कि भई हाँ, जानकारी होनी चाहिये तब पैर रखेंगे अगले पायदान पर"। सरकारी सोच वाकई ऐसी ही लगती है। आश्चर्य होता है कि जिन एजेंसियों को काम सोंपा जाता है उनकी कैसी समझ है मास कम्यूनिकेशन की। मुद्दे पर सीधे वार करने की बजाय अपनी डफली पर वही पुराना राग। अरे सीधे क्यों नहीं बताते कि भईये अनजान लोगों से सेक्स संबंध रखने से बचो, खास तौर पर जिस्म की मंडियों से परहेज़ रखो। और अगर चमड़ी मोटी है और बाज़ नहीं आ सकते अपनी आदतों से तो काँडोम का सही इस्तमाल करो। अस्पतालों में, होशियार रहो कि "नये डिस्पोजेबल" या अच्छी तरह उबले सिरिंज ही छुएं शरीर को। यदि रोग लग गया है तो दूसरो को संक्रमित करने या बच्चे को जन्म देने की न सोचो।

बहरहाल, पिछले साल से सरकारी भोंपू पर राग बदला है। बढ़े अच्छे और दो टूक बात करने वाले कुछ सीरियलों की बात मैं कर चुका हूँ, यह बात अलग हैं कि अब ये कार्यक्रम प्राईम टाईम से नदारद हैं। निःसंदेह संदेश कुछ स्पष्ट होना शुरु हुये हैं। इसके अलावा गर्भपात और गुप्त रोगों पर भी बात स्पष्ट रूप से रखी जा रही है। जिस दकियानूसी की सेंसर बोर्ड में ज़रूरत है वह सरकारी संदेशों में न ही आये तो अच्छा।

1 comment:

Atul Arora said...

आपका लेख ही सरकारी संदेश की जगह प्रसारित हो जाये तो काम बन जायेगा। काफी असरकारक भाषा है।