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Sunday, October 31, 2004

देह पर टिकी संस्कृति

अक्षरग्राम अनुगूँज - पहला आयोजन

एक नज़र मायानगरी मुम्बई के एक अखबार कि सुर्खियों पर। सिनेमा के इश्तहार वाले पृष्ट पर मल्लिका अपने आधे उरोज़ और अधोवस्त्र की नुमाईश कर अपनी नई फिल्म का बुलावा दे रही हैं। पृष्ट पर ऐसे दर्जनों विज्ञापन हैं, औरत मर्द के रिश्तों को नए चश्मे से देखा जा रहा है। पेज ३ पर अधेड़ और जवां प्रतिष्टित हस्तियों के मदहोश, अधनंगे चित्रों के साथ उनकी निजी ज़िन्दगी पर कानाफुसी है। मुखपृष्ट पर खबर है अमेरिकी हाई स्कूलों में डेटिंग कि जगह "हुक अप" (रात गई बात गई) ने ले ली है। भीतर के एक पृष्ट पर डॉ .मोजो एक २३ वर्षीय पाठिका की परेशानी का समाधान दे रहे हैं जो कि अपने प्रेमी के "लघु आकार" से व्यथित हैं। वर्गीकृत विज्ञापन के हेल्थ वर्ग में अनोखे मसाज़ पार्लर के इश्तहार मसाज़ से ज्यादा वर्णन मसाज़ करने वाली/वाले लोगों का ज़िक्र कर रहा है। एक अन्य लेख में चित्रमय चर्चा का विषय है कि औरतों को पुरुषों के नितंब क्यों पसंद आते हैं। प्रितिश नंदी अपने स्तंभ में किसी सर्वे का हवाला देते हुए लिखते हैं कि संसार में समलैंगिक पुरुषों की संख्या सामान्य पुरुषों कि तुलना में कहीं ज्यादा हो गई है (कहीं इसलिए तो मुम्बई महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं मानी जाती)। मुम्बई के एक पुर्व मेयर अपने साक्षात्कार में एतराज़ जता रहे हैं बिंदास होती जा रहीं लड़कियों के आचरण पर। एक दूसरे साक्षात्कार में हेमा मालिनी आश्चर्य जता रही हैं कि आजकल लड़कियां रोल पाने के लिए किसी भी हद तक जा रही हैं (दीगर बात है कि उन्होंने शायद ईशा देओल की फिल्म धूम नहीं देखी)। बाहर देखता हूँ कि कुछ स्कूली बच्चियाँ परिपक्व कपड़ों में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पारित करने में लगी हैं। पड़ोस के मनचले लड़के अपनी "मीन मशीन" का हार्न बजाते हुए पड़ोस से निकलते हैं और बच्चियाँ खिलखिला उठती हैं। वे देह की परीक्षा में पास हो गई हैं शायद। उधर बाग के हर कोने में कईजोड़े प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन के अपने जवां होने का प्रमाण दे रहे हैं, भले ही अधिकांश प्रेमियों की अभी मूँछे भी नहीं आई हों। ज़ाहिर है जब उनके बिज़ी माता पिता सुबह ४ बजे पार्टी से टुन्न लौटेगे तो उनके पास होन्डा सिटी कि पिछली सीट पर लिखी उनके सुपुत्र की रात कि दांस्तां टटोलने का बल ना होगा। कुल मिलाकर युवाओं ने इस नए रसायन शास्त्र की प्रायोगिक परीक्षा में अव्वल आने कि ठान रखी है।

इतिहास गवाह रहा है बदलावों का। जैसे जैसे वक्त की बयार की गति और रुख बदलते हैं वैसे ही मानवीय संवेनाओं की रेत कहीं और जाकर नया आकार पाती है। कभी पैसा, कभी मानवीय कमजोरियाँ, कभी धर्म तो कभी अधर्म, कभी राजनैतिक तो कभी सांस्कृतिक बदलाव के झोंके, कई कारक मिलकर गढ़ते हैं संवेदनाओं का रुप। बदलाव के जिस बयार की बात कर रहा हूँ वह शायद माया की चलाईहुई है। तभी संभवतः ज़िक्र माया नगरी का आया। मैं आज के भूटान के बारे में नहीं जानता पर मुझे याद है कि भूटान नरेश के एक काफी पुराने साक्षात्कार में व्यक्त किए उनके विचार, कि कैसे सैटेलाईट चैनलों के प्रसारण पर बाँध लगाकर उन्होंने अपने छोटे से देश की संस्कृति को बचाकर रखा। हमारे देश में प्रगतिशीलता के मापदंड पर सेंसरशिप को अभिशाप माना जाता है, अनुपम खेर को केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से बाहर करवाने वालों की एक बड़ी शिकायत यह भी थी कि इनके राज में सर्वाधिक "ए" फिल्में जारी हुईं (इसमें भला क्या शक है कि "मर्डर" सपरिवार देखने लायक फिल्म थी) तिस पर उन्होंने टीवी पर भी लगाम कसने की बात कही।

अक्षरग्राम अनुगूँज - पहला आयोजनमुझे यह बात बड़ी हास्यास्पद लगती है कि राजनैतिक संप्रभुता पर गर्व करने वाले हम भारतीय अपनी सांस्कृतिक संप्रभुता कि रत्ती भर भी परवाह नहीं करते। शायद इसलिए कि इस देश ने फ्रांस की तरह कभी कोई सांस्कृतिक आन्दोलन ही नहीं देखा। जिस सांस्कृतिक संप्रभुता को बचाने के लिए भूटान जैसे छोटे मुल्क कदम उठाने में नहीं झिझकते उसे हमने मुक्त बाजार और वैश्विक अर्थव्यवस्था के नाम पर सरेआम नीलाम कर दिया। २०० साल अंग्रेजों की गुलामी करने के बाद अब हम उनके सांस्कृतिक गुलाम बन गए हैं।

दुनिया बदली है, मानता हूँ, पर हमारे मनोरंजन के मायने बदले मुक्त बाजार और केबल टीवी ने, सोप से रियेलिटी टीवी से आज के उत्तेजक रीमीक्स तक अब हमारा कुछ नहीं रहा। जिस क्रिकेट के हम दिवाने हैं वह भी हमारा खेल नहीं है। आप शायद ये कहें कि क्या यह उच्चश्रृंखलता, उन्मुक्ततता ७०-‍८० के दशक में नहीं थी? भारत का कौन सा ऐसा शहर है जहाँ "सिरॉको" न दिखाई गयी हो, कौन सा इलाका जहाँ का केबल वाला भक्त प्रह्लाद की सीडी नहीं रखता। सही मानना है आपका पर कम से कम जो भी होता था वो होता था परदे के अंदर। गटर को खुला रखोगे तो सड़ाँघ फैलेगी ही।

बहरहाल मायानगरी से जो संदेश बाहर जा रहे हैं वो देश के हर कोने को दूषित कर रहे हैं। इस माया के पीछे माया नगरी के कौन लोग हैं नहीं जानता। पर यही ताकतें, जो मानती हैं कि देह ही सब कुछ है और सेक्स हर हाल में बिकता है, देश कि सांस्कृतिक राजधानी में बैठकर यह तय कर रही हैं कि देश के मनोरंजन के पैमाने कैसे होंगे। पर मेरे दोस्त, मुम्बई और दिल्ली भारत नहीं है, हुक्मरानो के पास दूरदर्शिता न सही कॉमन सेंस तो हो। वरना एक TB-6 चैनल बैन करने से क्या होगा हल्के डोज़ देने वाले हज़ारों वैकल्पिक TB-6 खरपतवार की तरह फैल रहे हैं।

7 comments:

debashish said...

बहुत अच्छा व सत्य है।

आशीष [11.02.04 - 11:13 am]

debashish said...

देवाशीष जी,
सबसे पहले तो असरदार लेख के लिये बधाई स्वीकार करें.

आपका कहना सही है, कि लोगो के नजरिये मे,सेक्स के प्रति कुछ बदलाव तो आया है,
लेकिन इस बदलाव की हवा उतनी तेज नही है, जितनी मीडिया और फिल्मवालो ने महसूस की है, लेकिन गलती उनकी भी नही है, यहाँ तो भेड़चाल चलती है, अगर किसी सब्जेक्ट पर एक फिल्म हिट होती है, तो दस और लाइन मे लग जाती है.

रही बात पेज थ्री वालों की, उनपर किसी का जोर नही चलता

Jitendra Chaudhary [11.03.04 - 11:07 am]

debashish said...

देबाशीष जी, आपकी कलम का पैनापन इस बार भी शिद्दत से महसुस करवाया आपने। बहुत खुब, भई वाह! लेख के पुर्वार्ध में तो गजब ही ढा दिया आपने...आपके इस कथन की पुष्टि कि '..हुक्मरानो के पास दूरदर्शिता न सही कॉमन सेंस तो हो..' गत दिनों तीर्थराज पुष्कर में हुई ईज़राईली बालाओं के नग्न नृत्य ने भी की जो वहाँ के कलेक्टर एवं अन्य प्रशासनिक अधिकारीयों के शह पर हुआ...

Nirav | Homepage | 11.03.04 - 5:04 pm]

debashish said...

देबाशीष, सर्वप्रथम, कादंबिनी के लिये बधाई!
अगर देह की बात की जाये तो शायद ऐसा पहली बार नही हो रहा है.इतिहास देंखे तो घनानंद के पतन का एक कारण , उसका और उसके अधिकारियों, मंत्रियों इत्यादि का भोग विलास में लिप्त रहना था.अहिल्या की कहानी तो सबको पता ही है.बौद्ध, जैन धर्म के जन्म लेने का एक कारण जनता में बढती अनैतिकता भी थी.मेरा ये मानना है कि नियम कानून तभी मायने रखते हैं जब हम उन्हें मानना

शैल | Homepage | 11.10.04 - 12:01 am]

debashish said...

देबाशीश, मेरे चिट्ठे पर आपकी टिप्पणी के लिऐ आपका आभार | ज्यादा खुशी इसलिऐ भी कि मेरे पहले हिन्दी पर्यास पर मेरे चिट्ठे में पहली टीप मेरे पसंदीदा चिट्ठों के लेखक द्वारा मिली | आपको धन्यवाद,

जितेन्दर् शर्मा [11.26.04 - 2:58 pm]

debashish said...

सवाल यह है कि टीवी, वीडियो व अन्तर्जाल की दुनिया में आप किस किस पर अङ्कुश लगाएँगे? पारिवारिक संस्कार ही काम आएँगे।

आलोक कुमार [12.02.04 - 7:38 am]

Manish said...

कमाल का लिखा है आपने.. एकदम सत्य!! अब तो एक लम्बा अरसा गुजर चुका है. लेकिन असर दिखता है.