सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर नया दल बना देने वाले शरद पवार उनसे राजनीतिक गठजोड़ के लिए तैयार हैं। जो मौका परस्ती न करें वो नेता भला क्या नेता! भाजपा भी इस मुद्दे को गरमाने के लिए तैयार है। कुछ ही दिनों पहले अटलजी भारतीय मूल के बॉबी जिंदल के लूसियाना के गवर्नर बनने की संभावना से बेहद उत्साहित थे, ग़र बॉबी जीत जाते तो शायद प्रवासी भारतीयों के बढ़ते कद पर वाजपेयी एक कविता लिख डालते। किसी भारतीय को विदेशी राजनैतिक पायदान पर चढ़ते देखना सुखद लगता है, भले ही वह खुद को भारतीय न मानता हो, पर किसी विदेशी का भारत में वैसा ही करना राजनैतिक नेत्रों में खटकता है। चाहे वो एक भारतीय से विवाहित स्त्री क्यों न हो। भले ही वह एक पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा से बेहतर हिन्दी बोल सकतीं हों।
दरअसल कोई भी ऐसी योग्यता जिस के आधार आप और मैं नौकरियों, परीक्षाओं में चुने जाते हैं राजनीति में चुने जाने का आधार नहीं बन सकतीं चाहे वह शैक्षणिक योग्यता हो, आयु सीमा या कार्य अनुभव। नतीजन हम अक्सर चुन लाते है निपट गँवार, अपराधी पृष्ठभूमि के लोग या ऐसे जिनके पांव कब्र में लटके हों। और चुनने की भी क्या कही! गठजोड़ की राजनीति के युग में आप भले ही सर्वश्रेष्ठ को वोट दें, इसका कोई भरोसा नहीं कि आपके ठुकराए दलों की सांठगांठ से सरकार नहीं बन जाएगी।
मैं कोई सोनिया भक्त नहीं, पर उनके विरोध के मुद्दे पर मुझे एतराज़ है। हालांकि सोनिया जैसे नए लोग हों या अटलजी जैसे अति अनुभवी, नुकसान दोनों को चुनने में है। जहां सोनिया जैसे नए रंगरुट नेताओं के उच्च पदों के आसीन होने से अफसरशाहों की चांदी हो जाती है और किचन कैबिनेट के मेम्बरान परोक्ष रूप से सरकार चलाने लगतें हैं, वहीं ज्यादा अनुभवी सूटकेस राजनीति में लिप्त हो जाते हैं। मेरा मानना है हमें कुछ बीच का रास्ता अख्तियार करना चाहिए।
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