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Tuesday, March 09, 2004

मेहमान का चिट्ठाः नितिन

कश्मीर और पाकिस्तानी अंर्तविरोध

ज़िया-उल-हक़ के शासन मे इस्लाम को छोड कोई और विचारधारा नही बची।
मेरा यह मानना है कि जब तक पाकिस्तान अपने भारत-विरोध को छोड़ खुद अपनी राह पर नहीं चलता तब तक उप-महाद्वीप में पूर्ण शांति की आशा नहीं की जा सकती। 1947 के बाद चाहे-अनचाहे पाकिस्तान एक स्वतंत्र राष्टृ बन गया है, यह एक सत्य है। लेकिन स्वतंत्र पाकिस्तान की अपनी स्वतंत्र विचारधारा बनते-बनते रुक गयी। कुछ पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों का मानना है कि “क़ैद-ए-आज़म” जिन्ना यह कभी नही चाहते थे कि वह देश एक इस्लामी राज्य बने – बल्कि वह भारत के मुसलमानों का अलग घरोंदा बने। लेकिन भारत के मुसलमानों ने ही नही बल्की सरहद के पठानों ने भी इस प्रतिक्रिया का तिरस्कार किया। परिणाम यह् है कि पाकिस्तान आज तक यह फैसला नहीं कर पाया कि उसका असली अस्तित्व क्या है! बांग्लादेश के जन्म के बाद् ज़िया-उल-हक़ के शासन मे इस्लाम को छोड कोई और विचारधारा नही बची।

७ मार्च के दैनिक “द न्यूज़” मे इकबाल मुस्तफा इसी विषय की चर्चा करते हुये कह्ते हैं-

अब समय आ गया है कि पाकिस्तान खुद अपनी तकदीर की तलाश करे।

इस तरह का लेख बहुत सालों मे पहली बार पढ़ने को मिला है। लेकिन जब तक पाकिस्तान का शासन सेना के हाथ मे है, परिवर्तन की उम्मीद बेकार है।

भारत पाकिस्तान के साथ कश्मीर के मुद्दे पर बातें और समझौता तो कर सकता है पर शायद पूर्ण रूप से सुरक्षित नही हो सकता।

इस पखवाड़े का "मेहमान का चिट्ठा" लिख रहे हैं, सिंगापुर में बसे नितिन पई। पेशे से दूरसंचार इंजीनियर नितिन एक प्रखर व मौलिक चिट्ठाकार हैं और उन मुठ्ठीभर भारतीय चिट्ठाकारों में शुमार हैं जो चिट्ठाकारी के लिए जेब ढीली करते हैं। अपने चिट्ठे "द एकार्न" में नितिन दक्षिण‍ एशियाई राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर खरी खरी लिखतें हैं, इस्लामिक व एटमी ताकत़ वाले राष्टृ खासतौर पर पाकिस्तान पर इनकी पैनी नज़र रहती है। मेरी गुजारिश पर नितिन ने कश्मीर समस्या और पाकिस्तान की भुमिका पर अपने विचार इस चिट्ठे में लिखे हैं। शुक्रिया नितिन

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