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Monday, March 29, 2004

हम ब्लॉग

प्राकृत भाषा में ब्लॉग की बात करें तो निःसंदेह अगुआई का सेहरा तमिल भाषियों के सर बंधेगा। हिन्दी चिट्ठों के संसार में नई लहर उठे अभी शायद कुछ माह ही हुए हैं, आलोक ने भी तकरीबन १ साल पहले अपना हिन्दी चिट्ठा शुरु किया था, पर तमिल भाषा में कई चिट्ठाकारों ने मिलकर इस आंदोलन को वृहद बना दिया है। सही सही मालूम नहीं कि इनमें से कितने युनिकोड कूटलिखित हैं पर मेरे ख्याल से अधिकांश हैं। इधर मेरी मातृभाषा बांग्ला समेत बाकी सभी भारतीय भाषाओं में चिट्ठों का मेरा गूगल अन्वेशण निरर्थक ही रहा। यदि आप को जानकारी है तो अवश्य बताएँ।

ताज़ा खबर [17 अप्रेल]: एक मराठी ब्लॉग मिला है, मी माझा। और बांग्ला ब्लॉग के शुरुआती कदमों की आहट तो आपने अब तक सुन ही ली होगी।

Tuesday, March 23, 2004

बस आगे बढ़तें रहें

पंकज के मुवेबल टाइप के अनुवाद के दौरान हुई चर्चा में मैंने या विचार रखे थे कि log, trackback, preview, template, password, username, archives, flag, bookmarklet जैसे पारिभाषिक शब्दों को जस का तस लिखना चाहिए, हर शब्द का हिन्दीकरण उचित नहीं।

पंकज का मानना है:

मैं सोचता हूँ कि अनुवाद ऐसा होना चाहिए जो कि एक हिन्दी माध्यम से दसवी पास व्यक्ति भी समझ सके । यानि की अंग्रेजी उसने केवल छठी से दसवी तक पढ़ी हो। या फिर कोई सरकारी कार्यलय का बाबू भी समझ सके।

विनय ने कहा:

जैसे-जैसे नए लोग आएँगे और लिखेंगे, अपने आप एक सर्वमान्य और विस्तृत शब्दकोश बनता जाएगा। शुरुआती समस्याएँ तो जायज़ हैं।

पंकज और विनय, आप दोनों की बात में दम है कि तकनीकी शब्दावली सामान्य व्यक्ति कि समझ में बसने लायक होना चाहिए। जो दिक्कत मैं देख पाया वह यह है कि यदि हम बोलचाल की भाषा के प्रयोग की अघिक चेष्टा करें तो भाषा अशुद्घ होने का डर रहता है, क्योंकि बोलचाल में तो हम हिन्दी, खड़ी बोली, अंग्रेज़ी, उर्दु और स्थानीय बोली का सम्मिश्रण बोलते हैं। दूसरी ओर यदि भाषा की शुद्घता पर ष्यान केंद्रित करें तो शब्दावली अति क्लिष्ट हो कर जनसामान्य के पहुँच से दूर हो जाती है। शायद यही कारण है कि जहाँ Trackback के लिए "विपरीतपथ" जैसे शब्द मुझे अटपटे लगते हैं वही ऐसे शब्दों का तुरन्त कोई हिन्दी समानार्थी भी नहीं सूझ पड़ता। वहीं Blog के लिए "चिट्ठा" काफी जँचता है।

तो जैसा विनय ने कहा, समय लगेगा, विभिन्न लोग अलग‍-अलग शब्दावली रचेंगे और अंततः कोई सर्वमान्य शब्द ज़बान पर चढ़ जाएगा। आगे बढ़ते रहना जरूरी है और पंकज आपका ये कदम हिन्दी को आगे लाने में अवश्य ही मददगार साबित होगा और हम जैसो के लिए प्रेरणास्त्रोत भी।

Tuesday, March 09, 2004

मेहमान का चिट्ठाः नितिन

कश्मीर और पाकिस्तानी अंर्तविरोध

ज़िया-उल-हक़ के शासन मे इस्लाम को छोड कोई और विचारधारा नही बची।
मेरा यह मानना है कि जब तक पाकिस्तान अपने भारत-विरोध को छोड़ खुद अपनी राह पर नहीं चलता तब तक उप-महाद्वीप में पूर्ण शांति की आशा नहीं की जा सकती। 1947 के बाद चाहे-अनचाहे पाकिस्तान एक स्वतंत्र राष्टृ बन गया है, यह एक सत्य है। लेकिन स्वतंत्र पाकिस्तान की अपनी स्वतंत्र विचारधारा बनते-बनते रुक गयी। कुछ पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों का मानना है कि “क़ैद-ए-आज़म” जिन्ना यह कभी नही चाहते थे कि वह देश एक इस्लामी राज्य बने – बल्कि वह भारत के मुसलमानों का अलग घरोंदा बने। लेकिन भारत के मुसलमानों ने ही नही बल्की सरहद के पठानों ने भी इस प्रतिक्रिया का तिरस्कार किया। परिणाम यह् है कि पाकिस्तान आज तक यह फैसला नहीं कर पाया कि उसका असली अस्तित्व क्या है! बांग्लादेश के जन्म के बाद् ज़िया-उल-हक़ के शासन मे इस्लाम को छोड कोई और विचारधारा नही बची।

७ मार्च के दैनिक “द न्यूज़” मे इकबाल मुस्तफा इसी विषय की चर्चा करते हुये कह्ते हैं-

अब समय आ गया है कि पाकिस्तान खुद अपनी तकदीर की तलाश करे।

इस तरह का लेख बहुत सालों मे पहली बार पढ़ने को मिला है। लेकिन जब तक पाकिस्तान का शासन सेना के हाथ मे है, परिवर्तन की उम्मीद बेकार है।

भारत पाकिस्तान के साथ कश्मीर के मुद्दे पर बातें और समझौता तो कर सकता है पर शायद पूर्ण रूप से सुरक्षित नही हो सकता।

इस पखवाड़े का "मेहमान का चिट्ठा" लिख रहे हैं, सिंगापुर में बसे नितिन पई। पेशे से दूरसंचार इंजीनियर नितिन एक प्रखर व मौलिक चिट्ठाकार हैं और उन मुठ्ठीभर भारतीय चिट्ठाकारों में शुमार हैं जो चिट्ठाकारी के लिए जेब ढीली करते हैं। अपने चिट्ठे "द एकार्न" में नितिन दक्षिण‍ एशियाई राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर खरी खरी लिखतें हैं, इस्लामिक व एटमी ताकत़ वाले राष्टृ खासतौर पर पाकिस्तान पर इनकी पैनी नज़र रहती है। मेरी गुजारिश पर नितिन ने कश्मीर समस्या और पाकिस्तान की भुमिका पर अपने विचार इस चिट्ठे में लिखे हैं। शुक्रिया नितिन

Monday, March 08, 2004

काव्यालयः बनकर याद मिलो

कॉलेज के दिनों में हर कोई कवि बन जाता है, कम से कम कवि जैसा महसूस तो करने लगता है। जगजीत के गज़लों के बोलों के मायने समझ आने लगते हैं और कुछ मेरे जैसे लोग अपनी डायरी में मनपसंद वाकये और पंक्तियाँ नोट करने लगते हैं। कल अपने उसी खजाने पर नज़र गयी तो सोचा क्यों ना कुछ यहाँ भी पेश किया जाए। "बनकर याद मिलो" मेरी कविता नहीं है, मुझे याद भी नहीं किस ने लिखी, पर मुझे उस वक्त बहुत पसंद आयी थी। यदि आप कवि का नाम जानतें हों तो अवश्य सूचित कीजिएगा।

बहुत दिनों से कहीं आँख भर
देखा नहीं तुम्हें,
सपनों में आ सको नहीं तो
बनकर याद मिलो।

दूरी तो तन की होती है
मन की क्या दूरी?
जो विचार के साथ चलें हैं,
कैसी मजबूरी?

बहुत दिनों से किसी विगत से
वह अनुबंध नहीं,
बड़ी घुटन है, साथ गंध के
दूर कहीं निकलो।
सपनों में आ सको नहीं तो
बनकर याद मिलो।

Friday, March 05, 2004

संचार माध्यम और सामाजिक दायित्व

भारतीय टेलिविज़न परिदृश्य के सन्दर्भ में बात करें तो आप को दो स्पष्ट समूह मिलेंगे। एक ओर तो सरकारी टेलिविज़न दूरदर्शन है और दूसरी तरफ उपग्रह चैनलों का झुण्ड। दोनों की कार्यप्रणालियों में खासा अंतर है। दूरदर्शन पारंपरिक तौर से सत्तारूढ़ दल का सरकारी भोंपू बना रहा है। अगर इस बात को नज़रअंदाज़ कर सकें तो पायेंगे कि दूरदर्शन स्पष्टतः ऐसे कार्यक्रमों का भी निर्माण भी करता रहा है, जिनकी उपग्रह चैनलों के कार्यक्रम निर्माताओं से कभी अपेक्षा नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए, क्या आप उम्मीद रख सकते हैं कि ज़ी टीवी या स्टार प्लस कभी "कृषि दर्शन" या "नृत्य का अखिल भारतीय कार्यक्रम" जैसे कार्यक्रम या गुमनाम वृत्तचित्रों का प्रसारण करेगा? मेरा ईशारा संचार माध्यमों के सामाजिक दायित्व की ओर है।

उपग्रह चैनलों की मजबूरी जगजाहिर है। टी.आर.पी और मुनाफा कमाने की होड़ में उनके पास सास‍ बहू, रोना धोना और बदन दिखाउ रीमिक्स विडिओ दिखाने के अलावा और चारा भी क्या है। उन्हें दूरदर्शन की तरह अनुदान की दक्षिणा थोड़े ही मिलती है। हालांकि प्रसार‍भारती के जन्म के बाद से दूरदर्शन को भी पैसे कमाने पड़ रहे हैं और उनके दृष्टिकोण के बदलाव को महसूस भी किया जा सकता है। कहाँ गए वो वृंदगान और टेलिनाटिकाएं! शुक्र है कुछ अच्छाई अभी भी शेष है।

जासूस विजय: जागरुकता मनोरंजन सेहालिया कार्यक्रमों में मुझे जासूस विजय बड़ा पसंद आया। एड्स और महिलाओं के प्रति सामाजिक रवैये के प्रति जागरूकता लाने के उद्देश्य से बी.बी.सी और नेको द्वारा निर्मित ये पुरस्कृत जासूसी धारावाहिक काफी मशहूर भी हो गया है। अभिनेता ओम पुरी इसमें सूत्रधार की भुमिका निभाते हैं। धारावाहिक मुलतः ग्रामीण दर्शक वर्ग के लिए है पर इसका कलेवर बड़ा रोचक है, दर्शकों को मौका दिया जाता है कि वो असली अपराधी की पहचान के ईनाम जीत सकें। जो चीज़ मुझे भाती है, वह है इस धारावाहिक में मनोरंजन तथा शिक्षा का सही मिश्रण। रोमांच और मसाले से भरपूर कहानी के द्वारा असल संदेश बेलाग स्थानीय भाषा में घर घर पहुंच रहा है। एक रोचक बात ये है कि इस कहानी के मुख्य किरदार यानि जासूस विजय, जिसे मंजे हुए कलाकार आदिल खंडकार हुसैन निभा रहे हैं, को भी एच.आई.वी ग्रस्त बताया गया है। जैसे जैसे कहानी आगे बड़ रही है और विजय का साथी किरदार गौरी के साथ प्यार पनपता दर्शाया जा रहा है एक बड़ा नाजुक सवाल भी खड़ा हो जाता है, क्या एक एच.आई.वी ग्रस्त व्यक्ति को विवाह का अधिकार मिलना चाहिए?

इस धारावाहिक को अनेक भारतीय भाषाओं में डब किया जाता है और ताजा खबर ये है कि अब इसे थाईलैंड तथा कंबोडिया में भी प्रसारित किया जाएगा। एक और अच्छा धारावाहिक एड्स पर जागरूकता लाने के लिए चल रहा है "हाथ से हाथ मिला" जिसमें दो बसों में युवा यात्री शहर और गाँव जा कर लोंगो को कॉन्डोम के इस्तमाल के प्रति जागरूक करते हैं। इन कार्यक्रमों के निर्माताओं को मेरी बधाई!

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इस चिट्ठे का अंग्रेज़ी रुपांतरण यहां उपलब्ध है।

Thursday, March 04, 2004

दोस्ती की रिश्वत

जिह्वा ने हसीब के एक हास्यास्पद लेख की चर्चा इस चिट्ठे में की है। हसीब का मानना है कि अगर कश्मीर जीतना है तो भारत को पाकिस्तान से आगामी क्रिकेट श्रृंखला हार जाना चाहिए। हैरत होती है कि कलमकार कागज पर कश्मीर जैसी समस्या का किस तेजी से हल निकाल लेते हैं। तरस भी आता है। लेखक की राय काफी हद तक भाजपा की चुनावी रणनीति से मेल खाती है। भाजपा का भी यही मानना है कि सुखद अर्थव्यवस्था का मंत्र पढ़कर और भारत‍ पाक दोस्ती की लॉलीपॉप पकड़ाकर जनता को बरगलाया जा सकता है। उन्हें ये लगता है कि भारत में बसे तमाम मुसलमानों का दिल पाकिस्तान में बसता है तो पाक से अच्छे संबंध बनाने का कटोरा हाथ में थामने पर अल्पसंख्यक वोट खुद‍ ब खुद झोली में आ गिरेंगे। जावेद अख्तर और अन्य जागरूक मुसलमान बुद्धीजीवियों ने हिंदुस्तान टाईम्स को लिखे एक पत्र में लिखा है:

शर्म कि बात है कि वाजपेयी और आडवाणी दोनों ये सोचते हैं कि भारत‍ पाक दोस्ती की रिश्वत देकर वे मुस्लिम वोट हासिल कर लेंगे।

बाहुबली बनने चले बुद्धिजीवी

सागरिका घोष मानती हैं कि भाजपा के मन में यह पेच रहा है कि वह बुद्धिजीवियों, कलाकारों और इतिहासकारों का दिल नहीं जीत पाई। सर विदिया को मंच पर ला कर वे इस बात को झुटलाना चाहतें हैं। कैसी विडंबना है कि जिस जमात के विचारों को छद्म धर्मनिरपेक्षतावाद या वामपंथी विचारधारा बता कर खारिज कर देते थे अब उन्हीं का साथ पा कर सम्मानित बनने की सोची जा रही है।

मैं ये मानता हूँ कि भाजपा ने बीते बरसों बड़े सलीकेवार तरीके से अपना जनाधार बनाया है। और बुद्धिजीवियों को अपने खेमे में लाने की कोशिश भी इसी दूरगामी रणनीति का हिस्सा है। राजनीतिक चूहों के हालिया पलायन के रुख से दिख भी रहा है कि अब भाजपा किसी के भी लिए अछुत नहीं रही। भाजपा के योजनाबद्ध तरीके के अब तक के परिणामों का विश्लेषण करें तो इस रणनीति का फल भी उन्हें इच्छानुसार मिला है। शिवसेना, बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी, स्वयं सेवक संघ जैसे बाहुबलीय संगठनों का साथ है। केवल पैसा कमाने के लिए सत्ता चाहने वाले घटक दलों का समर्थन हासिल है। वाजपेयी जैसा श्रेष्ठ मुखौटा नेता पास है जिसको आगे कर गीदड़ को भेड़ बताया जा सके। और ऐसे कार्यकर्त्ता हैं जो नेपथ्य में पार्टी की असल विचारधारा के अनुसार एजेंडे को अमलीजामा पहना रहे हैं (मेरा यह चिट्ठा भी पढ़ें) इतिहास के पुर्नलेखन से लेकर तालिबानी हिन्दू संगठनों के हाथ मजबूत करने तक। अपने महान नेताओं के महिमामंडन से लेकर सांस्कृतिक पुलिसिया भुमिका निभाने तक। यानि जो असल एजेंडा था वो तो पूरा हो ही रहा है।

इतिहास से छेड़छाड़ तो एक आपत्तिजनक मुद्दा है ही मुझे सबसे अधिक खतरा बाहुबलीय संगठनों से ही लगता है। आहिस्ता ‍आहिस्ता ये हमारे सामाजिक व्यवहार को ही प्रभावित कर रहें हैं। बरसो से बहुजातिय समुहों में हम रहते आए हैं। कभी‍ कभार अनबन हो ही जाती है। पर हमेशा दंगे तो नही पनप जाते। अब तो साहब माजरा ये ही रहता है, छुटभैये नेता छोटे‍मोटी तकरारों को सांप्रदायिक झगड़े के दावानल में झोंकने में पल भर भी नहीं सकुचाते। कल की ही बात है, मेरे शहर के एक हिस्से में एक बालिग सिन्धी युवती इलाके के ही एक मुसलमान युवक के साथ पलायन कर गयी। अखबार कहतें हैं पुरी रज़ामंदी थी। लड़की के परिजन बौखला गये, आप सोचेंगे उन्होने पुलिस की शरण ली, जी नहीं, वे गए बजरंग दल के पास। बस जंगल की आग की तरह खबर फैली। भाजपा विधायकों की उपस्थिती में, शासकीय बुलडोज़र से लैस होकर, बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी के पहलवान कार्यकर्त्ताओं नें इस युवक की संपत्ति को नुकसान पहुँचाया, घर की तलाशी करवाई। इस से पनपे तनाव से दोनों समुदायों में नारेबाजी और पथराव भी हुआ, बस आग फैली नहीं गनीमत है। कैसा फील गुड है ये?