आज के दैनिक भास्कर में मनोहर पुरी ने अपने एक लेख* में एक महत्वपूर्ण बिंदू पर चर्चा की है। क्या वोट डालना अनिवार्य कर देना चाहिए? हालांकि लेखक के इस तर्क से मैं कतई सहमत नहीं कि वोट न डालने वालों को सरकार के कलापों पर नुक्ता चीनी का हक नहीं होना चाहिए पर हाँ जनतंत्र में अधिकारों के साथ कर्त्तव्यों को भी समान महत्व मिलना चाहिए।
वोट डालना अनिवार्य कर देना कई मामलों मे हम नागरिकों के लिए रामबाण औषधी सिद्ध हो सकती है। हो सकता है त्रिशंकू सरकारों से इसके द्वारा मुक्ति मिल सके। मतदान प्रतिशत बढेगा तो चुनाव प्रक्रिया अधिक सटीक हो सकेगी।
पर यह भी सच है कि हमारे देश में, जहाँ नागरिक चेतना (सिविक सेन्स) का नितांत अभाव है, वहां बिना शास्ती का डर दिखाए कोई नियम लागू नहीं किया जा सकता। वोट डालना अनिवार्य कर देने की घोषणा मात्र से कुछ नहीं होगा, उसका हश्र तो फिर पल्स पोलियो अभियान जैसा हो जाएगा। अगर मेरा नियोक्ता कहे कि वोट न डालने की स्थिति में वो मेरा दो दिन का वेतन काट लेगा तो बात मुझे सरलता से समझ आएगी। पुरी ने यह भी अच्छा सुझाव दिया है कि मतदानोपरांत अधिकारी हर मतदाता को एक पावती या प्रमाणपत्र दे सकता है जो इस बात की पुष्टि करेगा कि उसने वाकई मतदान किया है।
मेरे विचार मैं तो केवल मतदान और प्राथमिक शिक्षा ही नहीं बल्कि निम्नलिखित चीज़ों को भी अनिवार्य नागरिक कर्त्तव्यों में शुमार करना चाहिएः
- अमेरिकी सोशियल सिक्युरिटी की तर्ज पर देश भर में मान्य परिचय पत्र जिससे पासपोर्ट, राशन कार्ड, वोटर परिचय कार्ड जैसे पच्चीसों गैरज़रुरी कागजो की जरुरत ना हो।
- अनिवार्य एड्स परीक्षण, जिसके परिणाम को उपरोक्त परिचय पत्र की दर्ज जानकारियों में शुमार किया जाए।
विचार तो अच्छे हैं पर बिल्ली के गले घंटी कौन बांधेगा?
----------
* स्थाई लिंक नहीं
No comments:
Post a Comment