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Thursday, October 27, 2005
आवरण ~ चिट्ठों के ब्लॉगर टेम्प्लेट
काफी दिनों से ये विचार मन में मचल रहा था। वर्डप्रेस के रेड ट्रेन जैसे कुछ ब्लॉग थीम पहली ही नजर में मन को भा गये थे पर अपने ब्लॉगर के ब्लॉग पर उसे लाने की बात पर मन मसोस कर रह जाता था। अब थोड़ा खाली समय मिला तो सोचा क्यों न खुशियाँ बाँटी जाय। बस इसी से जन्म हुआ आवरण का। आवरण के माध्यम से पहले पहल मैं वर्डप्रेस के दो लोकप्रिय थीम ब्लॉगर के लिये टेम्पलेट की शक्ल में पेश करने वाला हूँ। शायद यह पहली बार होगा कि हिन्दी चिट्ठाकारों के लिये "तैयार" टेम्पलेट उपलब्ध कराये जा रहे हों।
इस कार्य पर आपकी प्रतिक्रिया के अलावा मैं चाहुँगा आपके योगदान की भी। यदि आप को कोई थीम बेहद पसंद है और आप उसे ब्लॉगर के लिये चाहते हैं तो बेहिचक बतायें, संभव हुआ तो हम प्रयास ज़रूर करेंगे उसे रूपान्तरित करने का। और यदि आप नये टेम्प्लेट बनाने को उत्सुक हैं तो आईये, मंच तैयार हैं।
Tuesday, October 04, 2005
खेलों देशभक्ति का विकेंद्रीकरण
ज़रा इस सवाल का जल्दी से बिना ज़्यादा सोचे जवाब दें। भारत का राष्ट्रीय खेल कौन सा है?
अगर आप सोच में पड़ गये या फिर आपका जवाब क्रिकेट, टेनिस जैसा कुछ था तो जनाब मेरी चिंता वाजिब है। हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी है। पर पिछले कई दशकों में खेलों की हवा का रुख कुछ यों हुआ है कि हम मुरीद बने बैठे हैं एक औपनिवेशिक खेल के। और इस खेल में भी चैपल-गांगुली की हालिया हाथापाई दे तो यही पता चलता है कि खेलों पर आयोजक, चैलन, चयनकर्ता और राजनीति इस कदर हावी हो गई है कि अब खिलाड़ी और कोच भी अपने हुनर नहीं राजनीतिक दाँवपेंचों के इस्तेमाल में ज्यादा रुचि दिखाते हैं।
हम बरसों से सुनते देखते आये हैं राष्ट्रीय और आलम्पिक्स जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में चयन के सियासी खेल की, कहानी जो हर बार बेहयाई से दोहराई जाती है। हमारे स्क्वॉड में जितने खिलाड़ी नहीं होते उनसे ज़्यादा अधिकारी होते हैं। हॉकी जैसे खेल, जिनमें हम परंपरागत रूप से बलशाली रहे, में हम आज फिसड्डी हैं और निशानेबाजी जैसे नए खेलों पर अब हमें आस लगानी पड़ रही है। 100 करोड़ की जनसंख्या वाला हमारा राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में एक स्वर्ण पदक के लिये तरसता है।
हम यह भी सुनते रहते हैं कि भारतीय ट्रैक एंड फील्ड आयोजनों में स्टैमिना के मामले में युरोपिय देशों का सामना नहीं कर सकते, या फिर कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने जानबूझ कर हॉकी जैसे खेलों के नियमों में इस कदर बदलाव किये हैं कि सारा खेल ड्रिबलिंग जैसे एशियाई कौशल की बजाय दमखम का खेल बन गया। मुझे यह समझ नहीं आता कि कब तक हम ये बहाने बनायेंगे। चीन भी तो एशियाई देश है और हॉकी पाकिस्तान भी खेल रहा है। अंतर्राष्ट्रीय खेलों को छोड़ें, हमारे अपने घरेलू स्तर पर कितने बड़े आयोजन होते हैं? क्या स्कूलों में क्रिकेट के अलावा किसी और खेल पर जोर दिया जाता है?
जाने आपने यह टाईम्स में प्रकाशित गेल आम्वेट का यह हालिया लेख पढ़ा की नहीं! उन्होंने अमरीका से तुलना करते हुये बहुत ही अच्छा विश्लेषण पेश किया है। मुझे उनका यह विचार बड़ा रोचक लगा कि, "छोटी या स्थानीय देशभक्ति से खेलों का प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण हो सकेगा और इससे खेलों की राष्ट्रीय देशभक्ति फलेगी फूलेगी ही"। गेल का कहना यही है कि खेल की देशभक्ति भारत में केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजनों के लिये ही सामने आती है जबकि अमेरिका में ऐसा नहीं हैं।
निःसंदेह दिक्कतें और भी हैं। कब्बडी, खोखो, मलखम्ब जैसे घरेलू खेलों के खिलाड़ियों का न तो नाम हमारे राष्ट्रीय अखबारों में आता है न ही कोई उन पर पैसा लगाने को तैयार होता है। पैसों की बात तो अहम है, खास तौर पर जब खेल टेनिस जैसा ग्लैमर वाला न हो। कई दफा यह लगता है कि खेलों का बजट आखिर रक्षा या विज्ञान जितना क्यों नहीं होना चाहिये? गेल का इस विषय पर विचार अलग है। उनका कहना है कि सरकारी पैसे पर निर्भरता हो ही क्यों? अमरीका के विश्वविद्यालय खेलों के मर्केन्डाईज़ और टिकटों से कमा लेते हैं, खेलों से कमाई होती है तो इनके भरोसे गरीब परिवारों के बच्चे खेल वज़िफों पर विश्वविद्यालय में पढ़ लेते हैं। निजी फंडिंग से ही स्टेडियमों और खेल का साजो सामान का जुगाड़ होता है।
सानिया मैनिया के दौर में क्या कोई इस बात को सुनेगा?
टैगः देशभक्ति, कब्बडी, खेल, सानिया मिर्ज़ा
अगर आप सोच में पड़ गये या फिर आपका जवाब क्रिकेट, टेनिस जैसा कुछ था तो जनाब मेरी चिंता वाजिब है। हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी है। पर पिछले कई दशकों में खेलों की हवा का रुख कुछ यों हुआ है कि हम मुरीद बने बैठे हैं एक औपनिवेशिक खेल के। और इस खेल में भी चैपल-गांगुली की हालिया हाथापाई दे तो यही पता चलता है कि खेलों पर आयोजक, चैलन, चयनकर्ता और राजनीति इस कदर हावी हो गई है कि अब खिलाड़ी और कोच भी अपने हुनर नहीं राजनीतिक दाँवपेंचों के इस्तेमाल में ज्यादा रुचि दिखाते हैं।
हम बरसों से सुनते देखते आये हैं राष्ट्रीय और आलम्पिक्स जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में चयन के सियासी खेल की, कहानी जो हर बार बेहयाई से दोहराई जाती है। हमारे स्क्वॉड में जितने खिलाड़ी नहीं होते उनसे ज़्यादा अधिकारी होते हैं। हॉकी जैसे खेल, जिनमें हम परंपरागत रूप से बलशाली रहे, में हम आज फिसड्डी हैं और निशानेबाजी जैसे नए खेलों पर अब हमें आस लगानी पड़ रही है। 100 करोड़ की जनसंख्या वाला हमारा राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में एक स्वर्ण पदक के लिये तरसता है।
हम यह भी सुनते रहते हैं कि भारतीय ट्रैक एंड फील्ड आयोजनों में स्टैमिना के मामले में युरोपिय देशों का सामना नहीं कर सकते, या फिर कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने जानबूझ कर हॉकी जैसे खेलों के नियमों में इस कदर बदलाव किये हैं कि सारा खेल ड्रिबलिंग जैसे एशियाई कौशल की बजाय दमखम का खेल बन गया। मुझे यह समझ नहीं आता कि कब तक हम ये बहाने बनायेंगे। चीन भी तो एशियाई देश है और हॉकी पाकिस्तान भी खेल रहा है। अंतर्राष्ट्रीय खेलों को छोड़ें, हमारे अपने घरेलू स्तर पर कितने बड़े आयोजन होते हैं? क्या स्कूलों में क्रिकेट के अलावा किसी और खेल पर जोर दिया जाता है?
जाने आपने यह टाईम्स में प्रकाशित गेल आम्वेट का यह हालिया लेख पढ़ा की नहीं! उन्होंने अमरीका से तुलना करते हुये बहुत ही अच्छा विश्लेषण पेश किया है। मुझे उनका यह विचार बड़ा रोचक लगा कि, "छोटी या स्थानीय देशभक्ति से खेलों का प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण हो सकेगा और इससे खेलों की राष्ट्रीय देशभक्ति फलेगी फूलेगी ही"। गेल का कहना यही है कि खेल की देशभक्ति भारत में केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजनों के लिये ही सामने आती है जबकि अमेरिका में ऐसा नहीं हैं।
तकरीबन कोई भी ध्यान नहीं देता अगर अमेरीका किसी अन्य देश के साथ खेल रहा हो जब तक की मामला आलम्पिक्स का न हो। अमेरिका में बड़े खेल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बल्कि महानगरीय या राज्य विश्वविद्यालय स्तर पर होते हैं...वहाँ छोटे शहरों, स्कूलों के स्तर पर देशभक्ति है। हर हाईस्कूल का अपना चिन्ह है, गीत है, विरोधी हैं। अमेरिका का ध्यान केवल फुटबॉल, बास्केटबॉल, बेसबॉल जैसे बड़े खेल ही नहीं खींचते। बच्चे हर स्पर्धा में भाग लेते हैं, बैडमिन्टन, टेबल टेनिस, बॉली बॉल, आइस हॉकी, जो भी खेल हो।
निःसंदेह दिक्कतें और भी हैं। कब्बडी, खोखो, मलखम्ब जैसे घरेलू खेलों के खिलाड़ियों का न तो नाम हमारे राष्ट्रीय अखबारों में आता है न ही कोई उन पर पैसा लगाने को तैयार होता है। पैसों की बात तो अहम है, खास तौर पर जब खेल टेनिस जैसा ग्लैमर वाला न हो। कई दफा यह लगता है कि खेलों का बजट आखिर रक्षा या विज्ञान जितना क्यों नहीं होना चाहिये? गेल का इस विषय पर विचार अलग है। उनका कहना है कि सरकारी पैसे पर निर्भरता हो ही क्यों? अमरीका के विश्वविद्यालय खेलों के मर्केन्डाईज़ और टिकटों से कमा लेते हैं, खेलों से कमाई होती है तो इनके भरोसे गरीब परिवारों के बच्चे खेल वज़िफों पर विश्वविद्यालय में पढ़ लेते हैं। निजी फंडिंग से ही स्टेडियमों और खेल का साजो सामान का जुगाड़ होता है।
सानिया मैनिया के दौर में क्या कोई इस बात को सुनेगा?
टैगः देशभक्ति, कब्बडी, खेल, सानिया मिर्ज़ा
Monday, October 03, 2005
लताजी को नहीं पता जी?
व्यक्तिपूजन हमारे यहाँ की खासियत है। मकबूलियत मिल जाने भर की देर है चमचों की कतार लग जाती है। मैंने एक दफा लिखा था राजनीति में अंगद के पाँव की तरह जमें डाईनॉसारी नेताओं की, दीगर बात है कि आडवानी ने बाद में दिसंबर तक तख्त खाली करने की "घोषणा" की। पर समाज के अन्य जगहों पर यह व्यक्तिपूजन चलता रहता है। हाल ही में प्रख्यात पार्श्व गायिका लता मंगेशकर का ७६वां जन्मदिवस था। टी.वी. पर अनिवार्यतः संदेसे दे रहे थे दिग्गज लोग। लता ग्रेट हैं। बिल्कुल सहमत हूँ। एक नये संगीत निर्देशक, जिनका संगीत आजकल हर चार्ट पर "रॉक" कर रहा है और जिन्हें अचानक पार्श्वगायन का भी शौक लगा है, ने कहा वे आज भी इंतज़ार कर रहे हैं कि कब लता दीदी उनकी किसी फिल्म में गा कर उन पर एहसां करेंगी। माना कि भैये वक्त रहते तुम गवा नहीं पाये उनसे, जब वे गाती थीं तब तुम नैप्पी में होते थे, पर कम से कम उनके गाने के नाम पर श्रोताओं को गिनी पिग मान कर प्रयोग तो ना करो यार! जिनकी आवाज़ अब जोहरा सहगल पर भी फिट न बैठे उसे तुम जबरन षोडशी नायिकाओं पर फिल्माओगे? हद है!
जावेद अख़्तर ने सही कहा, लता जैसी न हुई न होगी। बिल्कुल सहमत हूँ। मुझे बुरा न लगेगा अगर आप उन्हें नोबल सम्मान दे दो, उनकी मूर्ति बना दो, मंदिर बना दो, १५१ एपिसोड का सीरियल बना दो चलो, पर सच तो स्वीकारो। मानव शरीर तो एक बायोलॉजीकल मशीन ठहरी, जब हर चीज़ की एकसपाईरी होती है तो क्या वोकल कॉर्ड्स की न होगी? मुझे लता जी के पुराने गीत बेहद पसंद है, उनके गाये बंगला गीत भी अद्वितीय है, पर "वीर ज़ारा" में उन को सुन कर लगा कि मदन मोहन भी अपनी कब्र में कराहते होंगे। बहुत राज किया है इन्होंने, लता आशा के साम्राज्य में सर उठाने को आमादा अनुराधा पौडवाल को गुलशन कुमार जैसे लोगों का दामन थामना पड़ा, और जब तक आवाज़ का लोहा माना तब तक बेटी गाने लायक उम्र में पहुँच गई। आज भी टेलेंट शो न जाने कितने ही माहिर लोगों को सामने लाते हैं पर सब "वन नंबर वंडर" बन कर गायब हो जाते हैं। श्रेया घोषाल जैसे इक्का दुक्का ही नाम पा सके।
मेरे विचार से यह ज़रूरी है कि निर्माता और संगीत निर्देशक इस बात को समझे और लता स्तुति छोड़ें, हर चीज़ का वक्त होता है, लता आशा अपने अच्छे वक्त को बहुत अच्छे से बिता चुकी हैं, वानप्रस्थ का समय है, उन्हें इस का ज्ञान नहीं हुआ पर आप तो होशमंद रहें।
टैगः व्यक्तिपूजन, लता मंगेशकर, मदन मोहन, वीर ज़ारा
जावेद अख़्तर ने सही कहा, लता जैसी न हुई न होगी। बिल्कुल सहमत हूँ। मुझे बुरा न लगेगा अगर आप उन्हें नोबल सम्मान दे दो, उनकी मूर्ति बना दो, मंदिर बना दो, १५१ एपिसोड का सीरियल बना दो चलो, पर सच तो स्वीकारो। मानव शरीर तो एक बायोलॉजीकल मशीन ठहरी, जब हर चीज़ की एकसपाईरी होती है तो क्या वोकल कॉर्ड्स की न होगी? मुझे लता जी के पुराने गीत बेहद पसंद है, उनके गाये बंगला गीत भी अद्वितीय है, पर "वीर ज़ारा" में उन को सुन कर लगा कि मदन मोहन भी अपनी कब्र में कराहते होंगे। बहुत राज किया है इन्होंने, लता आशा के साम्राज्य में सर उठाने को आमादा अनुराधा पौडवाल को गुलशन कुमार जैसे लोगों का दामन थामना पड़ा, और जब तक आवाज़ का लोहा माना तब तक बेटी गाने लायक उम्र में पहुँच गई। आज भी टेलेंट शो न जाने कितने ही माहिर लोगों को सामने लाते हैं पर सब "वन नंबर वंडर" बन कर गायब हो जाते हैं। श्रेया घोषाल जैसे इक्का दुक्का ही नाम पा सके।
मेरे विचार से यह ज़रूरी है कि निर्माता और संगीत निर्देशक इस बात को समझे और लता स्तुति छोड़ें, हर चीज़ का वक्त होता है, लता आशा अपने अच्छे वक्त को बहुत अच्छे से बिता चुकी हैं, वानप्रस्थ का समय है, उन्हें इस का ज्ञान नहीं हुआ पर आप तो होशमंद रहें।
टैगः व्यक्तिपूजन, लता मंगेशकर, मदन मोहन, वीर ज़ारा
Sunday, October 02, 2005
याहू की ब्लॉग सर्च?
खबर तो लीक पहले भी हुई थी पर गूगल भैया ब्लॉग खोज का यंत्र पहले ले आये बाजार में। सुनते हैं कि अब याहू कमर कस चुका है अपने ब्लॉग खोज तंत्रांश को मैदान में उतारने के लिये। ब्लॉगिंग के तो दिन फिर गये लगते हैं!
गूगल चींटी
कौड़ियों से करोड़ों?
जो यह हजरत कह रहे है कुछ कुछ वैसा ही ख्याल मेरा भी है। पर पहले बात इस पेंटिंग, जिसका नाम यकीनन कुछ भी हो सकता था, "महिशासुर" की, यह तैयब मेहता साहब की पेंटिंग है। आपने सुना ही होगा कि यह तिकड़म १ नहीं २ नहीं ३ नहीं पूरे ७ करोड़ रुपये में किसी हज़रत ने खरीदी है। हम यह बहस नहीं करे तो अच्छा कि यह पैसा पसीने की कमाई है या नहीं या फिर खरीददार की मानसिक हालत कैसी है। अब सुनिये कथित जानकार लोग क्या कहते हैं इसके बारे में:
गौरतलब है कि तैयब कि पिछली एक पेंटिंग जो "काली" देवी पर बनी थी १ करोड़ में बिकी थी। मुझे नहीं मालूम कि ये बनाने और खरीदने वाले पागल है या नहीं पर जो बात साफ साफ समझ आती है वह यह कि पैसे का यह लेनदेन कोई सीधी सच्ची कहानी तो नहीं है। खरीदने की "एन.आर.आई शक्ति" सारे रिकार्ड तोड़ रही है, लोग अपना कलेक्शन बना कर शेखी बघारने के लिये कूछ भी कीमत दे रहे हैं कचरा कला के लिये। बिलाशक कंटेम्पररी आर्ट पर खामखां का हाईप बना रखा है मीडिया ने। ग्रामीण हस्तकला कलाकारों की कला की नकल करने वाले लोगों के वारे न्यारे हैं और असली कलाकार दो जून की रोटी के लिये तरस रहे हैं।
खैर, जब तक अंधेरा कायम है रोटी सेंकतें रहेंगे तैयब और उनकी बेशर्म जमात।
[उत्तरकथाः बड़ा अजब संयोग है, मैंने यह चिट्ठा १ अक्टूबर को लिखा पर प्रेषित नहीं कर पाया, आज देखता हूँ कि तैयब की यह कृति टाईम्स और एक्सप्रेस में भी चर्चा का सबब बनी है। लगता है मेरे विचार संप्रेषित भी हो रहे हैं ;) बहरहाल इससे मुझे जो बात पता चली वह यह है कि इन चित्रों के इतने हाईप्ड कीमत पर बिकने पर भी इनके बनाने वालों को कोई रॉयल्टी नहीं मिलती। अब शायद इस लेख का आखिरी वक्तव्य मुझे वापस ले लेना चाहिये!]
टैगः तैयब मेहता, महिशासुर, मॉडर्न आर्ट, कंटेम्पररी आर्ट
- तैयब ने मॉडर्न आर्ट की नई भाषा रची है। उनका रंगों का "सीधा और तीक्ष्ण" प्रयोग उनके युग के चित्रकारों के हिसाब से अनूठा है।
- तैयब का तरीका नायाब है, तिस पर महिशासुर का विषय जीवन और आशा की भावना जगाता है।
गौरतलब है कि तैयब कि पिछली एक पेंटिंग जो "काली" देवी पर बनी थी १ करोड़ में बिकी थी। मुझे नहीं मालूम कि ये बनाने और खरीदने वाले पागल है या नहीं पर जो बात साफ साफ समझ आती है वह यह कि पैसे का यह लेनदेन कोई सीधी सच्ची कहानी तो नहीं है। खरीदने की "एन.आर.आई शक्ति" सारे रिकार्ड तोड़ रही है, लोग अपना कलेक्शन बना कर शेखी बघारने के लिये कूछ भी कीमत दे रहे हैं कचरा कला के लिये। बिलाशक कंटेम्पररी आर्ट पर खामखां का हाईप बना रखा है मीडिया ने। ग्रामीण हस्तकला कलाकारों की कला की नकल करने वाले लोगों के वारे न्यारे हैं और असली कलाकार दो जून की रोटी के लिये तरस रहे हैं।
खैर, जब तक अंधेरा कायम है रोटी सेंकतें रहेंगे तैयब और उनकी बेशर्म जमात।
[उत्तरकथाः बड़ा अजब संयोग है, मैंने यह चिट्ठा १ अक्टूबर को लिखा पर प्रेषित नहीं कर पाया, आज देखता हूँ कि तैयब की यह कृति टाईम्स और एक्सप्रेस में भी चर्चा का सबब बनी है। लगता है मेरे विचार संप्रेषित भी हो रहे हैं ;) बहरहाल इससे मुझे जो बात पता चली वह यह है कि इन चित्रों के इतने हाईप्ड कीमत पर बिकने पर भी इनके बनाने वालों को कोई रॉयल्टी नहीं मिलती। अब शायद इस लेख का आखिरी वक्तव्य मुझे वापस ले लेना चाहिये!]
टैगः तैयब मेहता, महिशासुर, मॉडर्न आर्ट, कंटेम्पररी आर्ट