बजाज अपनी एक वाहन श्रेणी के लिए बने टीवी विञापन में रेडियो सम्राट अमीन सायानी की आवाज़ का प्रयोग कर रहा है। दरअसल यह एक ही विञापन है पर इसका प्रर्दशन अदनान सामी के साथिया फ़िल्म के लिए गाए एक चर्चित गीत के प्रारंभिक हिन्दी अंतरे के बाद अन्य भाषाई अंतरों के पृथक कॉम्बीनेशन के रूप में किया जाता है। नतीजतन, एक ही विञापन के कई संस्करण बन गए हैं। एक अन्य वाहन के विञापन में चालक पेट्रोल पंप पर आकर "पेट्रोल" का ही नाम भूल जाता है। वहाँ का मुलाज़िम उसके कई सवाल बूझने के बाद सही शब्द सुझा पाता है। इस विञापन के भी कई संस्करण दिखाए जाते हैं, कई दफा एक ही कार्यक्रम के व्यावसायिक ब्रेक्स के दौरान।
हालांकि जिस उद्योग से मैं जुड़ा हूँ वहाँ उत्पाद के अलाहदा संस्करण होना एक ज़रूरी कवायद है (और इन संस्करणों के देखरेख के लिए भी अन्य सॉफ्टवेयर उत्पादों की जरूरत पड़ती है), पर विञापन जगत के लिए शायद यह नई बात है। विञापन का मेमरी रिटेन्शन यानी की जेहन में ताज़ा रहना उसकी सफलता के मुख्य आधारों में से एक माना जाता रहा है। मुझे याद है कि विको वज्रदंती का जो विञापन छोटे व बड़े पर्दे पर दिखाया जाता रहा है उसकी संरचना व जिंगल गीत में कोई आज तक कोई भारी बदलाव नहीं किया गया, उत्पाद के निर्माताओं की विञापनों की स्थाई छवि पर इतना भरोसा रहा है। संभव है कि यह तगड़े व्यापारिक आधार वाले उत्पादों पर ही लागू होता हो क्योंकि जिस क्षेत्र में मुक़ाबला तगड़ा है, जैसे कि शीतल पेय जैसे उत्पाद, वहाँ विञापन हर छमाही पर नए और बड़े सितारे के साथ बदल कर पेश होते रहे हैं। अब तक भाषाई आधार पर ज़रूर एक ही ईश्तहार के कई रूप होते रहे हैं, जैसे पेप्सी के जिस उत्पाद का उत्तर भारत में अक्षय कुमार प्रचार करते हैं, उसी विञापन का दक्षिण भारतीय संस्करण उनके स्थान पर चिरंजीवी का सहारा लेता है। हाँ, विञापन का मसौदा वही होता है।
सिनेमा जगत में तो एक ही कहानी पर लोग फिल्म के वृहद संस्करण बना कर ही पेट पालते रहे हैं। बॉक्स आफिस और स्थिति की मांग हो तो पटकथा में बदलाव कोई बड़ी बात नहीं होती। पटकथा लेखक का मूल कथानक धरा का धरा रह जाता है और कहानी पर बाजार के मुद्दे भारी पड़ जाते हैं। कहते हैं कि अमिताभ की अस्पताल से सकुशल वापसी के बाद मनमोहन देसाई ने मूल पटकथा का रुख मोड़ कर कुली फिल्म में अमिताभ के किरदार को क्लाईमेक्स में मौत को धता बताते दिखाया। मणिरत्नम की फिल्मों के भी भाषाई संस्करण बनते रहे हैं। ८० के उत्तरार्ध में गुलशन कुमार ने कॉपीराईट कानून की तहों में छेद खोज कर पुराने मशहूर गीतों के रचनाकारों के अधिकारों की खिल्ली उड़ाते हुए वर्ज़न गीतों का प्रचलन शुरु किया, यह प्रथा अब अधनंगे विडियो वाले रीमिक्स गानों तक पहुँच गयी है।
विषय पर वापस आना चाहूँ तो मेरे कहने का पर्याय है कि किसी कथानक के अलाहदा अंत वाले संस्करण यदा-कदा ही देखने को मिलते हैं। कुछ समय पहले मैंने ऐसी एक अंग़्रेज़ी फ़िल्म जरूर देखी थी (रन लोला रन) जिसमें एक ही घटना अलग परिस्थितियों में घटती है और कथानक हर बार किसी अलग मुक़ाम पर पहूँचता है। ज़ी टीवी पर भी एक ऐसा परीक्षण किया गया था, कार्यक्रम "आप जो बोले हाँ तो हाँ, आप जो बोले ना तो ना" के द्वारा, जिसमें दर्शकों की राय के आधार पर कहानी मोड़ लेती थी। कल्पना कीजिए कि आपकी स्थानीय वीडियो लाईब्रेरी में "एक दूजे के लिए" फिल्म का मूल और सुखांत संस्करण दोनों मुहैया हों। सुना है कि रामगोपाल वर्मा भी एक ऐसी फिल्म पर कार्यरत हैं जिसकी कहानी के दो अलग तरह के अंत होंगे। अभी ये मालूम नहीं कि ऐसे संस्करण एक ही सिनेमा हॉल में प्रदर्शित होंगे या प्रांत और भाषा के अनुसार, पर ईंटरएक्टिव टीवी और सिनेमा के जरिए निःसंदेह है कुछ नया करने की दिशा में यह सराहनीय व रचनात्मक कदम हैं।